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अन्य आराधक क्यों नहीं ?
पृथ्वी आदि छकाय के आरभ का तीन करण तीन योग से परिहार, सब से पहले होता है । जो इस प्रकार की वृत्ति नही अपना सकता, वह जिनेश्वरो की श्राज्ञा को आदरणीय मानते हुए भी जैन साधु नही हो सकता। इस प्रकार की वृत्ति गृहस्थों और अजैन साधुओ मे नही हो सकती । गृहस्थो को गृहस्थवास मे रहते हुए स्थावर जीवो के प्रारम्भ से सर्वथा बचना असभव है और अजैन साधुओ के क्रिया-काण्डो मे भी स्थावर और छोटे छोटे यस जीवो की हिंसा का बचाव नही होता । ईर्यादि पाँचों समितियो का पालन आदि भी निग्रंथो के अतिरिक्त अन्य लोगों से नही हो सकता । क्योकि गृहस्थो का तो जीवन ही प्रायः प्रारम्भमय और सावद्य है, तथा अन्य संस्कृति मे सावद्य - निरवद्य तथा ग्रारम्भ अनारंभ का विचार ही नही है, इसलिए उन्हे पूर्ण अहिंसक आदि नही कह सकते ।
शका - उपरोक्त विचार प्रामाणिक भी है या आपका अपना मत है ?
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समाधान- लीजिये प्रमाण । स्वय निर्ग्रथनाथ भगवान् महावीर ने अपने प्रवचन मे कहा है कि- " आणाए मामगं धम्मं " - मेरा धर्म, श्राज्ञानुसार पालन करने मे है ( आचारांग १-६--२) गुरुदेव अपने शिष्य से कहते हैं कि- “ अणाणाए एगे सोवट्ठाणे, अणाए एगे णिरुवट्टाणे, एतं ते मा होउ एयं कुसलस्स दंसणं " अर्थात् हे शिष्य | जिनाज्ञा के बाहर की क्रिया मे तुम्हारा उद्यम और जिनाज्ञा के पालन मे आलस्य, ये दोनो नही होना चाहिए, क्योकि यह सर्वज्ञ भगवान् का दर्शन है ( आचा
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