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सम्यक्त्व विमर्श
जन-सेवा के लिए ही जो साधु बनते हैं, वे जनता से और जनमान्दोलन से दूर कैसे रह सकते है ?
समाधान-यह मानना ही गलत है कि निग्रंथो की दीक्षा, जन-सेवा के उद्देश्य से होती है। जो जन-सेवा के उद्देश्य से दीक्षा लेने का कहते है, वे खद अपना अज्ञान जाहिर करते हैं। प्रथम तो दीक्षा का उद्देश्य ही मोक्ष प्राप्ति का है, जन-सेवा का नही । दूसरा-साधु, जन-सेवक नही, किंतु जन सेव्य-पूज्य होता है। तीसरा-निग्रंथचर्या के साथ जन-सेवा का कार्य सगत भी नही होता।
निग्रंथ प्रवचन क्या है ? इसके सम्बन्ध मे पागमकार स्वय कहते है-"सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं णिज्जाणसग्गं णिव्वाणमन्गं अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं" अर्थात-जिनधर्म, सिद्धि का मार्ग है, मुक्ति का मार्ग है, निर्याण मार्ग है, निर्वाण मार्ग है, सन्धि रहित परिपूर्ण एवं समस्त दुखो को नष्ट करनेवाला मार्ग है। श्री आचाराग २-६ मे बताया है कि 'जो परमार्थ दर्शी हैं, वे मोक्ष मार्ग को छोड कर अन्यत्र नही जाते"जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे"। उववाई सूत्र मे निग्रंथो के निष्क्रमण का ध्येय बताते हुए लिखा कि-"कम्मणिग्यायणढाए अन्भुट्ठिया" (-कर्मों को नष्ट करने के लिए ही साधता है) आदि, दशवकालिक ५-१ की निम्न गाथा मे स्पष्ट रूप से कह दिया गया कि"अहो ! जिहि असावज्जा, वित्ति साहण देसिया । मोक्खसाहणहेउस्स, साहुदेहस्स घारणा" ॥ १२ ॥