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सम्यक्त्व विमर्श
। यहा शंका हो सकती है कि 'साधु किसे मानना' ?
समाधान-पात्मिक दृष्टि से तो वही साधु है, जिसके कषाय की तीन चौकडियो का उदय नही हो और जो प्रारम्भ परिग्रह की रुचि से विरत हो, वही वास्तविक साधु है । ऐसे साधु को असाधु मानना मिथ्यात्व है।
अन्यमत
शंका-साधुता का आपका बताया हुआ स्वरूप तो बहुत सुन्दर है । जिसकी कषाये इतनी क्षीण हो वही साधु हो सकता है, फिर वह किसी भी मत को मानने वाला हो। क्योकि उपरोक्त व्याख्या से किसी मत का तो संबध ही नही है ?
समाधान-नही, यह स्वरूप जनदर्शन का बताया हुआ है। जैन सिद्धात, उसी मे श्रावकपना या साधुता मानता है, जिसके अनन्तानबन्धी कषाय उदय मे नही हो। जिसके अनन्तानवन्धी का उदय नहीं होगा, उसके प्राय. मिथ्यात्व-मोहनीय का भी उदय नही होगा । अनन्तानुबन्धी चीक और दर्शन मोहनीय त्रिक का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होने पर ही वह श्रावक की कोटि मे आ सकता है । मिथ्यात्व के सद्भाव मे वह श्रावक भी नहीं माना जाता, तो साधु कैसे माना जा सकता है ? जैन आगम स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जिस जीव को मिथ्यादर्शन सबधी क्रिया लग रही है, उसे अप्रत्याख्यानी अर्थात् असंयम की क्रिया लगती ही है, सभी (२४) क्रियाएँ लगती है । अतएव जिसका मत विपरीत हो, जिसकी दृष्टि अशुद्ध हो, उसमे अनन्तानुबधी