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अन्यमत का साधु भो ?
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कषाय का उदय अवश्य है, फिर भले ही वह तीन न होकर मद ही हो। वह जैन सिद्धात के अनुसार साधु नही हो सकता।
शका-नमस्कार मन्त्र के पांचवे पद मे लोक मे रहे हुए समस्त साधुओ को नमस्कार करने की शिक्षा दी गई है। उसमे किसी एक मत या वेश का आग्रह नही है । फिर आप इस प्रकार का आग्रह क्यो रखते हैं ?
समाधान-किसी भी वस्तु या तत्त्व का स्वरूप, उसके कहनेवाले के प्राशय के अनुसार ही होना चाहिए. अपनी मर्जी के अनुसार नही । जब जैन धर्म, मिथ्यात्व के उदय वाले को गृहस्थ-उपासक भी नही मानता, तो साधु मानेगा ही कैसे ? सम्यक्त्व को विरति की मूल-भूमिका मानने वाला दर्शन, अंटसंट मान्यता वाले को कभी साधु नही मानेगा, यह स्पष्ट और सरल बात है । गणधरादि सूत्र-प्रणेताओ और अभयदेवादि व्याख्याकार प्राचार्यों का यही मत है । श्रीभगवतीसूत्र की टीका करते हुए. नमस्कार मन्त्र के पांचवे पद "नमोलोए सव्व साहुण" की व्याख्या करते हुए श्री अभयदेव सूरिजी ने लिखा है कि- "सामायिकादि पाच चारित्र वाले, प्रमत्तादि नौ गुणस्थान वाले, पुलाकादि निग्रंथ, जिनकल्पिक, यथालंदकल्पिक, परिहारविशुद्ध-कल्पिक, स्थविरकल्पिक, स्थितकल्प, स्थितास्थितकल्प तथा कल्पादि भेद युक्त, प्रत्येकबुद्ध, स्वयंबुद्ध, बुद्धबोधित आदि भेद वाले भरतादि क्षेत्र-भेद वाले, सुषमादि कालभेद वाले, इत्यादि अरिहतो के साध ही "सम्वसाह" पद से लिये जाते हैं, बुद्धादि के नही-“सार्वस्यवाहतो न तु बुद्धादेः" ।
(पं० बेचरदासजी संपादित पृ० ५)