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साधु को असाधु मानना
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प्रकार से विरत नही हो, तो वह निग्रंथ साधुता से दूर ही है और उसकी सभी प्रकार की साधना संसार वर्द्धक ही होती है ( सूय. १-८) किन्तु जिसकी दृष्टि यथार्थ हो, जिसका लक्ष ससार से पार होकर शाश्वत स्थान को प्राप्त करने का हो और जो सम्यग् प्रकार से विरत हो, तो उसका मद प्रयत्न भी मोक्षसाधक होता है और वह निर्ग्रथ साधु है । उसे साधु मानना चाहिए ।
संसार मे साधना कई प्रकार की है, द्रव्य-धन साधना, क्षेत्र - देश, राष्ट्र अथवा राज्य साधना, काल साधना । ( जो कार्य दीर्घकाल मे होता हो, उसे स्वल्प समय मे कर लेना अथवा समय की पाबन्दी रखना) काम भोग की साधना, विद्या साधना, मन्त्र साधना, बल साधना ( व्यायामादि से ) स्वर्ग साधना इत्यादि साधना करनेवाले साधक को, संसार भने ही साधु माने और साधु के नाम से पुकारे, किंतु निग्रंथ संस्कृति इन साधको को वास्तविक साधु नही मानती । उसकी दृष्टि मे वही साधु है, जो लौकिक सभी साधनाओ का त्यागकर के परमार्थ साधना करता हो "परमट्ठाणुगामियं" (सूय. १-६ - १ ) जो संसार के समस्त सबधो को आश्रव का कारण मानता हो - ' सव्वे संगा महासवा" ( सूय. १ - ३-२ ) जो संसार के सम्बन्ध - संयोगों को श्राश्रव का कारण जानकर परमार्थ की ओर गमन करता हो वही साधु है । ऐसे साधु को प्रसाधु मानना और ईर्षा, प्रज्ञान और पक्षपात से उनकी निन्दा करना, मिथ्यात्व का ही परि णाम है ।