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सम्यक्त्व विमर्श
बोलते हुए कहा था कि "आध्यात्मिकता और भौतिकता ए दूसरे के पूरक है, न कि शत्रु । आध्यात्मिकवाद ने भौतिकवा के विषय मे जो धारणाएँ प्रचारित की है, वे दोष रहित न है"। आदि,+ इन विचारो को स्पष्ट रूप से एक मुनिजी ने बताय कि 'साधुओ को अपने पेट की समस्या का हल खोजना चाहिए तब 'श्रमण' पत्र ने तो साधुओ के अपरिग्रहवाद की निंदा कर हुए गोचरी करने को ही अधर्म (रक्त-पान) बतला दिया सोनगढ पथ ऐसा निकला कि जिसने एकातवाद का प्राग्र करके आत्मा को उन्नत बनानेवाले व्यवहार धर्म का ही लो कर दिया।
यदि हममें विवेक है, धर्म, अधर्म और बन्ध के विषय मे हमारी धारणा सही है, तो हमे इनके भेदो के विषय मे स्पष मन्तव्य रखना चाहिए । संवर, निवृत्ति मूलक ही है । हिंसा झूठ, अदत्त, मैथुन और परिग्रह की निवृत्ति, इद्रियो के विषय का निग्रह, कषाय विवेक, ये सब निवृत्ति मूलक ही है । प्रात्म लक्षी है। निर्जरा मे भी निवृत्ति का ही बोलवाला है । वदन वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान आदि प्रवत्ति रूप धर्म भो निवृत्ति साधने के ही उपाय हैं। यह ध्यान में रखना चाहिए कि हमार ध्येय, सिद्ध होने का है और सिद्ध दशा में कोई बाह्य प्रवृत्ति होती ही नही । वहा ज्ञानोपयोग, अकर्मक आत्मवीर्य-शक्ति
___ + बाद में इन्होंने ही कहा कि अध्यात्मवाद के अतिरेक ने धर्म की हानि की। वे योग और भोग दोनों को मिलाकर मध्यम-मार्ग बनाना चाहते है।