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२ धर्म को अधर्म मानना पहला भेद अधर्म को धर्म मानने रूप मिथ्यात्व को बताने वाला था, यह दूसरा भेद 'धर्म को अधर्म' मानने रूप मिथ्यात्व को स्पष्ट करता है । कोई कोई जीव ऐसे भी होते हैं
कि जो पाप को पाप ही मानते हैं, प्रास्रव को आस्रव और बंध __ को बंध ही मानते हैं, इतना होते हुए भी वे धर्म-संवर निर्जरा
को, धर्म नही मानते । वे धर्म का फल मोक्ष नही मानकर पुण्यदैविक सुख आदि मानते हैं । उन्हे मोक्ष और उसके उपाय के विषय मे श्रद्धा नही है। हमारे मे ऐसे भी नव-शिक्षित पंडित है जो धर्म को प्रवत्ति-मलक मानते हैं और कहते हैं-"प्रवत्ति लक्षी निवत्ति ही धर्म है" । नियमित धार्मिक क्रिया, सामायिक प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, प्रमार्जन, ध्यानादि को वे "जड़क्रिया" कहकर घृणा व्यक्त करते हैं ।
यो तो संसार के सभी अन्य मतावलम्बी, जैन आचार विचार को धर्म नही मानते । मोक्ष की मान्यता रखने वाले अजैन मतावलम्बी भी उसके उपाय रूप धर्म मे भिन्न मत रखते हैं । वे कर्म के स्वरूप और उनको रोकने तथा नष्ट करने के सम्यग् उपाय के प्रति प्रश्रद्धालु हैं और मोक्ष के स्वरूप को भी ठीक तरह से नही जानते । इस प्रकार धर्म को अधर्म माननेवाला तो सारा संसार है । यह कोई नई बात नही है, अजैन विचारधारा सदा से धर्म को अधर्म मानती रही है। नई बात तो यह है कि कोई कोई नामधारी जैन साधु भी धर्म को अधर्म कहते नही हिचकिचाते । परिग्रह का सर्वथा-त्रिकरण त्रियोग से त्याग रूप महावत के विषय मे, एक नूतन पंडित साध ते