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सम्यक्त्व विमर्श
धर्म है, और आप चाहे तो दूसरे धन्धे भी कर सकते हैं । आप मे कोई कोई तो ऐसे हैं जो राष्ट्र का नेतृत्व कर सकते है." इत्यादि । एक मुनि मिथ्यात्व भरी वाणी मे कई बार बोल गये कि "धरती के धर्म की बात करो, आकाश मे लटकते हुए हवाई धर्म की बाते छोडो," इसका मतलब परोपकार-लोकहित
आदि को अपनाकर, मोक्ष धर्म को छोड़ने से है। इस प्रकार जिनकी वाणी से केवल सवर, निर्जरा, त्याग और विरति रूपी धर्म की ही धारा बहनी चाहिए, वे अधर्म का प्रचार करे और उसे सबसे बडा धर्म बतावे, इससे बढकर अज्ञान और क्या होगा? स्थानकवासी समाज का दुर्भाग्य है कि आज उसमे इस प्रकार के अधर्म प्रचारक, धर्मात्मा का स्वाग लिए समाज को गुमराह कर रहे हैं।
अधर्म को धर्म माननेवाले मतो से तो संसार भरा हुआ है । एक जैन-धर्म ही ऐसा था जो अधर्म को धर्म नही मानता था, परन्तु इसमे भी पंचमकाल के वक्रपने के कारण उल्टी गंगा बह रही है-कुप्रावचनी बढ रहे है । यह महान् खेद की बात है। अब जो शुद्ध धर्म-कथी हैं, उनका कर्तव्य हो गया है कि वे श्रोताओ को धर्म और अधर्म के भेद समझावे । और सूज्ञ श्रोताओ का कर्तव्य है कि वे जैन तत्त्वज्ञान का अभ्यास करके धर्म-अधर्म का भेद समझे । यदि उन्होने गफलत की और अधर्म को धर्म समझ लिया, तो इस अमूल्य मानवभव और सुयोग की प्राप्ति के वास्तविक लाभ से वचित रहकर मिथ्यात्व के गर्त में गिर जावेगे। अतएव इस ओर से पूरी सावधानी रखनी चाहिए।