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अधर्म को धर्म मानना
बढने लगा और त्यागी गुरु परिग्रहधारी बन गए । इसके बाद धर्म क्रान्ति हुई । हंस के समान विशुद्ध प्रज्ञावान् श्री लोकाशाह ने, दूध में मिले हुए पानी की तरह धर्म मे मिले हुए अधर्म को भिन्न किया और विशुद्ध धर्म को पुन. प्रकाश मे लाये । यह शुद्धि आन्दोलन बहुत सफल रहा । किंतु वर्तमान मे यह विशुद्ध परपरा भी विकारो का घर बन गई । इसके कोई त्यागी प्रचारक, पुन. प्रारभजनक सावध प्रचार करने लगे। स्थानको, उपाश्रयो
और स्मारको के प्रारंभ-समारंभ मे उनकी रुचि बढी । इसके लिए वे द्रव्य संग्रह करवाने लगे । गृहस्थो को प्रेरणा देकर, उनसे द्रव्य निकलवा कर ईंट चूना पत्थरादि मे लगाने लगे। एक ओर देवालय, उपाश्रय तथा तीर्थ स्थानो के निर्माण मे शक्ति लगाई जाने लगी, तो हमारे कोई कोई गुरुदेव, स्थानको और स्मारको के निर्माण मे अपने चारित्र को होमने लगे । प्रभातफेरिया, जाप तथा सप्ताहो के जुलस और तपोत्सव के विशाल आडम्बर करवाकर प्रारम्भ बढाने लगे और ऐसे प्रारभो मे स्वयं धर्म की आराधना बताने लगे। कुछ नवपठित लौकिक डिग्रीधारियो ने तो अधर्म (पाप) के कार्यों को ही धर्म समझकर प्रचार करने लगे। उनकी मिथ्यावाणी और लेखनी पर विचार किया जाय, तो उन्हे साधु या सम्यगदष्टि मानने मे ही मिथ्यात्व लगता है। मिथ्यात्व का नग्न-ताण्डव पिछले ढाई हजार वर्षों मे नही हुआ, वैसा वर्तमान के पठित-मर्जी साहित्यरत्नो ने उपस्थित किया है । 'एक नाम और रूपत. श्रमण, अपनी बुद्धिमत्ता और विद्वत्ता का प्रदर्शन करते हुए हरिजनो को उपदेश देते हैं कि-"आपका कार्य सबसे बड़ा