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सम्यक्त्व विमर्श
भयानकता समझकर उसे त्यागना सर्व प्रथम प्रावश्यक है।'
मिथ्यात्व मे सबसे पहला स्थान अधर्म को धर्म मानने रूप उल्टी श्रद्धा को दिया गया है। यह सर्वथा उचित है । अधर्म रूपी विष को धर्म रूपी अमृत मान कर जीव, अनन्त जन्म मरणादि की महान् दुख परम्परा मे उलझता रहा । यदि जीव, हिंसादि अविरति, प्रमाद, कषाय, प्रास्रव, तथा बंध रूपी अधर्म को धर्म नही मानता-विश्वास नहीं करता, तो वह कुमार्ग में नही भटकता, नरक निगोद के दुख नही पाता । मिथ्यात्व का मूल तो इसी मे रहा हुआ है । यह पहला कारण ही अन्य सभी कारणो की जड है । यदि यह छूट जाय, तो अन्य कारण छूटना सरल हो सकता है । अतएव सबसे पहले अधर्म को धर्म मानने रूप मिथ्यात्व को बलपूर्वक नष्ट करना चाहिए और इसके बाद भी सतत सावधानी रखनी चाहिए कि जिससे अधर्म को धर्म मानने की कुबुद्धि उत्पन्न नही हो ।
उदय के प्रभाव से हमारे परम पवित्र जैन-धर्म मे भी कई प्रकार की गलत मान्यताएँ चल पड़ी और अधर्म के त्यागी तथा सर्व-विरत कहलाने वाले साधु साध्वी, अन्धाधुन्द प्रचार करने लगे । सबसे पहले चैत्यवाद ने प्रभाव जमाया। भक्ति के नाम पर प्रारम्भ और सावध व्यापार को धर्म मान लिया गया और प्रारम्भ त्यागी मुनिवर, खुद प्रारम्भ प्रवर्तक हो गए तथा सावध विधानो से ओत-प्रोत ग्रथ रचडाले । पाखण्ड यहाँ तक फैला कि नदी और कुण्डो में नहाने रूप अधर्म मे भी धर्म होने की घोषणा कर दी गई। तीर्थों और देवालयो के सहारे परिग्रह