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धर्म को अधर्म मानना
प्रादि गुण ही है, इसलिए हमारा भी ध्येय अकर्मक-प्रात्मवीर्य अर्थात् आत्मिक अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान, अनन्त आत्मिक सहज सुख ही होना चाहिए और इसके लिए हमारा लक्ष भी निवृत्ति का ही होना चाहिए । यदि हम उदय के जोर से अभी पूर्ण निवृत्ति प्राप्त नहीं कर सके, तो ध्येय तो वही रखना चाहिए। प्रवृत्ति के लक्षवाले के बंध का अभाव हो ही नहीं सकता। क्योकि प्रवृत्ति, परलक्षी अथवा परावलबन युक्त होती है । उसमे बंध का सद्भाव है ही-भले ही शुभ बंध हो । वदन वैयावृत्यादि प्रवृत्ति भी परावलबन युक्त है, किंतु यदि वह अन्य अनन्त परावलंबन से बचकर स्वावलंबन के लक्ष से युक्त हो, तो निवृत्ति साधक ही कही जायगी । प्रवृत्ति मे भी लक्ष की भिन्नता होती है । एक प्रभु-भक्ति करता है-लौकिक कामना से, और दूसरा करता है प्रभु की प्रभुता (गुणो) को अपनी प्रात्मा मे जगाने के लिए। भक्ति मे समानता होते हुए भी ध्येय मे कितना महान् अंतर है ? हमे एकातवादी बनकर उत्तम प्रवृत्ति (वंदन, वैयावृत्य स्वाध्यायादि) को छोडना नही है, अपनाना है, परन्तु इनका ध्येय निवृत्ति साधक ही होना चाहिए ।
सोचिए, सिद्ध भगवंत किसे वंदन करते हैं ? किसकी वैयावृत्य करते हैं ? सर्वज्ञ हो जाने पर स्वाध्याय की भी क्या जरूरत ? ये सब प्रवृत्तिएँ पहले ही छट जाती है न ? जब आप को भी वह स्थिति प्राप्त करनी है, तो उसकी श्रद्धा तो करनी ही होगी, अर्थात् निवृत्ति का ही लक्ष रखना होगा। निवृत्ति ही धर्म है और जो निवृत्ति के लक्ष की ओर बढ़ावे,