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परपाषण्डी प्रशसा
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कार 'परपाषंडी प्रशसा का खतरा भी सम्यक्त्व के लिए
है ।
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'दर्शन विघातिनी' कथा करने वाले दूसरो के अतिरिक्त कहलानेवाले भी होते हैं । परपाषण्डी- प्रशसा' का दोष कहानेवालो ( सम्यक्त्वी) को ही लगता है, दूसरो को | क्योकि दूसरे तो सम्यक्त्वी है भी नही और यह दोष तो ऋत्व का है । जैनी, सम्यग्दृष्टि और जैन श्रमण - गुरुस्थाकहाने वाले - जिनके सिर पर जैनत्व के प्रचार का, सम्यके पोषण का भार है, वे ही यदि 'परपाषण्डी - प्रशसा' करा र्शन घातक बने, तो यह रक्षक ही भक्षक बनने के समान है । 'बुद्ध, गाँधी, विनोबा, तुकडोजी आदि की प्रशसा करके की ओर आकर्षित करनेवाले कोई कोई साधु भी हैं, समाज ग्रसर भी है और पत्र भी है । जितनी हानि घर के अपने नेवालो से होती है, उतनी दूसरो से नही । यदि भीषणजी, जी प्रादि दूसरे मतो के होते, तो उनसे इतनी हानि नही | | अपने बनकर ही उन्होने जैनियो की श्रद्धा बिगाड़ी है । प्रकार 'परपापण्डी प्रशसा' के खतरे से पूर्ण सावधान रहना श्यक है ।
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इस भेद मे हमे उस साहित्य को भी स्थान देना है, मिथ्यात्व वर्द्धक है । ऐसे साहित्य की प्रशसा से लोगो मे के प्रति आकर्षण बढ़ता है और उसे अपनाने की प्रवृत्ति है । यह प्रवृत्ति उनके लिए दर्शन घातक बन जाती है । मिक ज्ञान की परिपक्वता के बिना ही लौकिक विद्या और
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