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सम्यक्त्व विमर्श
तो विरोधी सच्चा और खरा होते हए भी उसका विरोध प्रभावजनक नहीं होता, क्योकि उसकी पुण्य प्रकृतियो का प्रभाव उसकी बुराई को भी दबा देता है । महात्माजी की वत्स-घात आदि प्रवृत्ति का हिन्दुओ और जैनो ने खूब विरोध किया, किंतु उनके शुभोदय के आगे विरोध का कोई खास प्रभाव नही पडा। इतना ही नही अनेक जैनी, अपनी श्रद्धान् से खिसक कर उनके अनयायी बन गये। जैनियो के इस प्रकार के परिवर्तन मे कोई कोई साधु साध्वी भी कारणभूत बने । उन्होने गांधीजी को भगवान् महावीर के समकक्ष बिठाने तक की मिथ्या चेष्टा की। इस प्रकार की 'दर्शन-भेदिनी विकथा' से अनेक अज्ञानी भोले जीवो के सम्यग्दर्शन का घात हुआ।
परपाषडियो की प्रशंसा नही करना'-इस के विपरीत कोई कोई कहते है कि 'सद्गुणो की प्रशसा करने मे क्या दोष है ? गुणो की प्रशसा तो होनी ही चाहिये, फिर वह किसी के भी क्यो न हो।' इस प्रकार कहनेवाले को समझना चाहिये कि गणो की प्रशंसा करनेवाले यदि उस व्यक्ति मे रहे हुए दोष नही बता सके, तो भोले लोग,गुण के साथ दोष भी ग्रहण कर लेगे और उसमे आपको प्रशसा कारण बन जायगी । एक व्यक्ति मे दो गुण और दो अवगुण है। आपने दो गुणो की तो खूब प्रशसा करदी, किंतु दोष का सामान्य दर्शन भी नही कराया। आपकी प्रशंसा से, आप पर विश्वास रखनेवालो ने उस व्यक्ति पर श्रद्धा करली, और उसके गुण के साथ दोषो को भी अपना लिया। आपकी प्रशसा उसके दोष ग्रहण मे भी कारणभूत बनी।