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दोष-परपाषण्डी प्रशसा
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तेल सिन्दूर लगे भैरूं, भवानी को पूजने लगे । दरगाह और मजार पर माथा रगडने लगे।
परपाषडी-प्रशसा को "दर्शन भेदिनी विकथा" भी कहते हैं । स्थानागसूत्र स्थान ७ की सात विकथा मे छठी 'दंसणभयणी' कथा है । इसका अर्थ करते हुए श्री अभयदेवाचार्य ने लिखा है कि "दर्शनभेदिनी-ज्ञानाद्यतिशयितकुतीथिक प्रशंसादिरूपाः' । कुतीथियो की प्रशसा करने से साधारण लोगो का उनकी ओर आकर्षण होता है और उनमे से कई ऐसे भी होते हैं जो जिन-धर्म को छोडकर उन कुतीथियो के अनुयायी बन जाते हैं । इस प्रकार परपाषडी प्रशंसा से सम्यग्दर्शन का घात होता है।
कभी ऐसा भी होता है कि जब जैन-धर्म मे कोई प्रभावशाली युग-प्रधान व्यक्ति नही हो, और अजैन मत मे युगपुरुष हो, तब उनके प्रभाव से अधिक जनता प्रभावित हो जाती है। यह कोई अनहोनी बात नहीं है । सौभाग्य, शुभ, पराघात, आदेय और यशोकीति आदि शुभनाम कर्म का उदय मिथ्यादृष्टियो के भी होता है । इससे वे प्रशसनीय बन जाते हैं। उनकी दृष्टि असम्यग् एव अप्रशस्त होते हुए भी, उनकी चर्या प्रशस्त भी होती है । उनका रहन-सहन, खान-पान, आचारविचार और जीवन वर्या लौकिकदृष्टि से अनुकरणीय होती है। उनके वचनो का प्रभाव पड़ता है, इसलिए दूसरे मतावलम्बी भी उनकी प्रशंसा करते हैं । विरोधी पक्ष भी उनका आदर सत्कार करता है। यदि ऐसे व्यक्ति का कोई विरोध करता है,