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सम्यक्त्व विमर्श anmarrrrrrrrrrrrrrror उसके अभ्यास से प्राप्त होने वाली 'साहित्यरत्नादि' पदवियो से ललचाकर, शुद्ध श्रद्धान को गंवा बैठते हैं । इसका कारण उस विद्या की प्रशसा है। जिस प्रकार विषय विकार की प्रशसा, भोगरुचि उत्पन्न करके चारित्र का घात कर देती है,जिस प्रकार 'चारित्र भेदनी कथा' को भी विकथा कहकर, ऐसी कथा का निषेध किया है, उसी प्रकार 'परपाषण्डी' तथा 'परपाषण्ड प्रव. तक साहित्य' और पौद्गलिक दृष्टि को बढानेवाले शास्त्रादि की प्रशसा का भी त्याग होना चाहिये । तात्पर्य यह कि परपाषण्डी, परपाषण्ड और ऐसे साहित्य की प्रशसा करना भी सम्यक्त्व के लिए खतरे का कारण हो सकता है । इस खतरे से सम्यक्त्व-रत्न की रक्षा करना चाहिए ।
प्रश्न-पर-पाषण्ड प्रशंसा' का सही अर्थ-'पर-पुद्गल' की प्रशसा है, वे पुद्गल-प्रेमी हैं। पुद्गल प्रेम ही आत्मा के लिए पर-पाषण्ड प्रशसा है। जो लोग इसका अर्थ-'अन्य धर्मावलम्बी की प्रशसा करना' करते हैं, वे गलत अर्थ करते हैं । इस विषय मे आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-पर-पाषण्ड प्रशंसा का अर्थ-"पौद्गलिक विकार की प्रशंसा करना, निश्चय दृष्टि से ठीक है, किंतु व्यवहार दृष्टि से 'अन्य मतावलम्बी-मिथ्या दर्शनी की प्रशसा करना" अर्थ ही सत्य, आगमोक्त तथा युक्ति सगत है । दोष के ये भेद, व्यवहार दृष्टि से ही प्रतिपादित किये गये हैं।
'परपासंडपसंसा' और 'परपासडसथव' अतिचार, उपासकदसा अ० १ के मूलपाठ मे आया है। श्रावक शिरोमणि