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१३८ - सम्यक्त्वपराक्रम ( ४ )
भी और लोहा भी - त्याज्य हैं । इसी प्रकार जो मुक्त होना चाहता है वह मोक्षाभिलापी मात्मा तो राग और द्वेषदोनो का ही त्याग करता है । जिस प्रकार सोने का त्याग करना मुश्किल है और इसी कारण साधु महात्मा कचनकामिनी के त्यागी कहलाते हैं, उसी प्रकार राग का त्याग करना भी मुश्किल है और इसी कारण राग-द्वेप के त्यागी को वीतराग कहते हैं ।