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________________ पैतालीसवां बोल-१३७ स्पष्ट करने के लिए दो-तीन बार कह देते हैं। ऐसा करने से पुनरुक्ति होती है परन्तु जनसमुदाय के लाभ के लिए की जाने वाली पुनरुक्ति दोप-पात्र नही गिनी जाती। इसके अतिरिक्त कषाय का प्रश्न द्वेष-आश्रित है और वीतरागता का प्रश्न रांग-आश्रित है । इस दृष्टि से विचार करने पर यहा पुनरुक्ति भी नही है । . शास्त्रकार का कथन है कि राग का त्याग करना जितना कठिन है, उतना कठिन द्वेष का त्याग करना नही है। इसी कारण मुक्तात्मा वीतराग कहलाते हैं, वीतोष नही । क्योंकि द्वेष की अपेक्षा राग का त्याग कठिन है और राग का त्याग तभी हो सकता है जब द्वष का त्याग कर दिया जाये । सोने का त्याग करना जितना कठिन है, लोहे का त्याग करना उतना कठिन नही है। इसी प्रकार द्वेष की अपेक्षा राग का त्याग करना कठिन है। जिस प्रकार समभाव उत्पन्न होने से सोना और लोहा समान मालूम होता है, उसी प्रकार जीवन में समभाव प्रकट होने के बाद राग और द्वेष-दोनो का त्याग करना कठिन नही रह जाता। यद्यपि राग से भी पुण्योपार्जन हो सकता है, परन्तु जो आत्मा मुक्त होना चाहता है, वह न तो पुण्योपार्जन करना चाहता है और न पापोपार्जन करना चाहता है। वह तो पाप और पुन्य-दोनो को कर्म मान कर छोडना चाहता है । मोक्षाभिलाषी आत्मा को न किसी वस्तु पर राग करने की आवश्यकता है और न किसी पर द्वष करने की आवश्यकता है । उदाहरणार्थ-मनुष्य जब गृहस्थावस्था में होता है तब वह लोहे का त्याग करके भले ही सोने का संग्रह करे; परन्तु जो साधु होना चाहता है उसके लिए दोनों ही-सोना
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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