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छयालीसवां बोल
क्षमा
पैतालीसवे बोल मे वीतराग के फल के विषय में प्रश्न पूछा गया है । वह प्रश्न राग को दृष्टि में रखकर ही किया, गया है। क्योकि कषाय का सम्बन्ध राग-द्वेष के साथ है। जब तक जीवन मे वीतरागभाव नही आता तब तक इष्ट गध, इष्ट रस आदि से रागभाव नही छूटता। रागभाव का स्याग करने से जोवात्मा क्षमाशील बन जाता है । जीवन में जब वीतरागभाव प्रकट होता है, तब क्षमा का गुण भी प्रकट होता है । अतएव छयालीसवें बोल में गौतम स्वामी क्षान्ति (क्षमा) के विषय में प्रश्न पूछते हैं ।
मूलपाठ प्रश्न-खंतीए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? उत्तर--खंतीए परीसहे जिणइ ॥४६॥
शब्दार्थ प्रश्न-भगवन् ! क्षमा धारण करने से जीव को क्या लाभ होता है ?