SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२-सम्यक्त्वपराक्रम (२) 'मा- लक्ष्मी, धारयति-पोपयतीति माधव.' इस व्युत्पत्ति के अनुसोर भक्त अनन्त ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी लक्ष्मी के पति माधव को सवोधित करके कहता है'हे माधव | मेरे बरावर जड और कौन है ? यद्यपि मछली और पतग हीनमनि कहलाते है, लेकिन मैंने तो उनसे भी बाजी मार ली है । मैं उनमे भी अधिक बुद्धिहीन ह । इस महामोह की नदी मे भटकते-भटकते अनन्तकाल व्यतीत हो चुका है, फिर भी मैं इसका किनारा नहीं पा सका । महापुरुषो ने मुझसे नदी के किनारे पर पहुँचाने के लिए कहा'तू इस नौका पर सवार हो जा तो सरलता से पार हो जायेगा ।' लेकिन मैं नौका पर तो आरूढ नही हुआ, पानी के फैन पकडने लगा और उनका सहारा खोजने लगा । मैं अच्छी तरह समझता हू कि यह नौका है और यह फैन है। फिर भी मैंने नौका का आश्रय न लेकर फैन का सहारा चाहा ! बनाइए, मुझ जैसा मूर्ख इस ससार मे और कौन होगा ?' जो सच्चा भक्त होगा और जो अपने हृदय मे माया को स्थान न देना चाहता होगा, वही इस प्रकार की बात कह सकता है। दूसरे मे इतनी हिम्मत कहाँ ? जो • पहले से ही अपने को निष्पाप-दूध का धुला समझे बैठा है और महाज्ञानी मानता है, उस पडितमन्य के मुख से इस प्रकार की बात निकल ही नही सकती । भक्तजन अपना आन्तरिक भाव प्रकट करते हुए यहाँ तक कहते है-- अवगुण ढाकन काज करूँ जिनमत-क्रिया । तजू न अवगुण-चाल, अनादिनी जे प्रिया ।। अर्थात् - हे प्रभो ! मैं अपने अवगुणो को ढंकने के
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy