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________________ पांचवां बोल-२३ लिए तो जिनमत, की क्रिया करता है, मगर अवगुणो को त्याग करने के लिए श्रम नही करता, जो अवगुण अनादि से मुझे प्रिय हैं। हृदय मे जब इस प्रकार का उन्नतभाव व्यक्त होता है और सचाई के साथ गुरु के समक्ष अपने पापो की आलो. चना की जाती है तो माया का विनाश अवश्य होता है। अगर पाप को नष्ट करने की भावना का उद्भव हो तो-, पाप-पराल को पुज बन्यो अति मानह मेरु आकारो। सो तुम नाम हुतासन सेती सहज ही प्रज्वलत सारो ॥ अर्थात-सुमेरु जितना बडा पापो का पुज भी परमात्मा का शरण स्वीकार करने से नष्ट हो जाता है। कपट करके दूसरे को मायाजाल मे फंसाया जा सकता है, लोगों की ऐसी सामान्य मान्यता है, मगर उन्हे मालूम नहीं है कि ऐसा करके वे स्वय ही मायाजाल में फंस रहे है। भगवान् से आलोचना के फल के विषय मे प्रश्न किया गया है । यह प्रश्न पूछने के बहाने वास्तव मे भाव-आलोचना की व्याख्या पूछी गई है । जिस आलोचना से माया छूटती है, वही वास्तव में भाव आलोचना है। - अनन्त ससार की वृद्धि करने वाली माया ही है, और कोई नही । कतिपय लोग कहते हैं कि ईश्वर हमे दुख देता है अथवा काल दुःख देता है । परन्तु ज्ञानीजन कहते हैं कि वास्तव मे दुख देने वाली माया ही है । अगर हमारे भीतर माया का वास न हो तो उस अवस्था से हमे कोई किसी प्रकार का दु.ख नही दे सकता । आलोचना द्वारा माया का विमोचन होता है और माया के विमोचन के पश्चात्
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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