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________________ बारहवाँ बोल - १६३ कायोत्सर्ग से प्रायश्चित्त की विशुद्धि होती है; लेकिन जिससे पाप का छेदन हो वही प्रायश्चित्त कहलाता है और इस प्रकार प्रायश्चित्त का अर्थ विशुद्धि है । तो फिर प्रायश्चित्त की विशुद्धि कैसे की जाती है ? इसका उत्तर यह है कि यहाँ प्रायश्चित्त शब्द का प्रयोग व्रत के अतिचारो के लिए किया गया है । प्रायश्चित्त करने योग्य व्रत सवन्धी अतिचारो की कायोत्सर्ग करने से विशुद्धि होती है । कुछ लोगो का कहना है कि किये हुए पाप का फल भोगना ही पडता है । मगर जब सब चीजो की विशुद्धि होती है तो पाप की ही विशुद्धि क्यो न होगी ? जब ससार की समस्त वस्तुओ की विशुद्धि हो सकती है तो फिर अतिचार से अशुद्ध आत्मा की विशुद्धि न होने का क्या कारण है । ससार की समस्त वस्तुए शुद्ध की जा सकती हैं और दूसरे लोगो ने इस प्रकार की शुद्धता करके लाभ भी प्राप्त किया है, मगर हिन्दूजाति ने यह शुद्धि नही अपनाई और इसी कारण उसे हानि उठानी पडी । हिन्दूजाति ने यह समझ लिया कि एक बार जो अशुद्ध हो गया सो बस हो गया, वह फिर कभी शुद्ध नही हो सकता । सोना भी अशुद्ध होता है लेकिन वह शुद्ध कर लिया जाता है । अगर कोई चौकसी ( सर्राफ ) सोने को शुद्ध करने के बजाय फैक दे और यह समझ ले कि एक बार अशुद्ध हो जाने के बाद उसकी शुद्धि हो ही नही सकती तो उसका दीवाला निकल जायेगा या नही ? वास्तव मे यह मानना भूल है कि किये हुए पापो की शुद्धि नही हो सकती । पापो की विशुद्धि अवश्य हो सकती है । अगर पापो की विशुद्धि असम्भव होती तो सामायिक - प्रतिक्रमण करना भी व्यर्थ हो जाता !
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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