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२१२-सम्यक्त्वपराक्रम (१)
मनुष्य को कामभोग के साधन प्राप्त नहीं होते और दूसरों को वह प्राप्त होते है, तब उसे दूसरे के प्रति ईर्पा-द्वेष उत्पन्न होता है । इस प्रकार मनुष्य दूसरे को सुखो देखकर आप दु खो बन जाता है। इसी कारण ज्ञानोजन कहते हैंकि सुखी-जनो को देखकर अपने चित्त मे मैत्रीभाव लाओ।
प्रश्न किया जाता है कि ससार मे सभी तो सुखी हो नहीं सकते, कुछ लोग हमारी अपेक्षा भी अधिक दुःखी हैं । ऐसे दुखियो के प्रति हमे कैसा व्यवहार रखना चाहिए? इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार सुखी जीवो के प्रति मैत्रीभाव रखना बतलाया गया है, उसी प्रकार दुखियो के प्रति करुणाभावना रखनी चाहिए । दुखी जीव अपने कर्मों के कारण दुख भोग रहे है, इस प्रकार विचार करके उनके प्रति उपेक्षा रखना उचित नही है । करुणा दु खो जोवो पर ही की जाती है, अतएव किसी दुखी को देखकर यह मानना चाहिए कि मुझे करुणाभाव प्रकट करने का शुभ अवसर मिला है । आप, लोग इस मानव-जीवन में रहकर दूसरो की जो भलाई कर सकते हैं, परोपकार कर सकते हैं और साथ ही आत्मकल्याण की जो साधना कर सकते है, वह देवलोक मे रहने वाले इन्द्र के लिए भी शक्य नही है। इस दृष्टि से विचार करो कि मानव-जीवन मूल्यवान् है या देव-जीवन ? डाक्टरो को देवलोक भेजा जाये तो वह वहाँ जाकर किसकी दवा करेगे ? रोगो की दवा करने का अवसर तो यही प्राप्त होता है, वहा नही । अतएव दुखियो को देखकर उनके प्रति मन मे करुणाभावना लाना चाहिए। आप 'मित्ती मे सव्वभूएम. अर्थात् सब जीवो के साथ मेरा