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- तीसरा बोल-२११ ___ के प्रति मेरे हृदय मे करुणाभाव रहे और विपरीत वृति वालो के प्रति मेरे हृदय मे समभाव रहे ।।
इस प्रकार परमात्मा के प्रति प्रार्थना करना और तदनुसार जीवन-व्यवहार चलाना चित्तशुद्धि का मार्ग है । तृष्णा से निवृत्ति होने के लिए भावना की शुद्धि होना आवश्यक है । योग के लिए भी योगशास्त्र में यही कहा गया है कि भावना शुद्ध हुए विना योग की सिद्धि नही होती। - आप सब लोग चित्तशुद्धि करने के लिए ही यहाँ एकत्र हुए हैं, मगर देखना चाहिए कि चित्त की शुद्धि किस प्रकार होती है ? चित्त शुद्ध करने के लिए अथवा भावना को विशुद्ध बनाने के लिए योगसूत्र मे कहा है कि जीवो को सुखी देखकर अपने मे मैत्रीभावना प्रकट करो । सुखी को देखकर ही सुख का स्मरण होता है और सुख का स्मरण आने से सुखी-जन के प्रति ईर्षाभावना उत्पन्न होती है।
वन्दरो की टोली मे खाने-पीने की चीजो को लेकर ही झगडा होता है, लेकिन मनुष्यो मे झगडे के अनेक कारण है। इसका मूल कारण यही है कि सुखी जीवो को देखकर अन्त करण मे मैत्रीभावना प्रकट नही होती । सुखी जीवो को देखकर यदि मैत्रीभाव उत्पन्न हो तो झगडे उत्पन्न न हो और चित्त भी प्रसन्न रहे । जब किसी सुखी मनुष्य को देखो तो यह सोचकर ईर्षा मत करो कि इसे सुख क्यो मिला ? यह सुख मुझे क्यो नही मिला ? जहाँ ईर्पा या द्वेष होता है वहा मैत्रीभावना नहीं टिक सकती। जब किसी