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२१० - सम्यक्त्वपराक्रम (१)
कार ही इस मानसिक दुख को दूर करने का उपाय बतलाते हैं और स्पष्ट कहते हैं कि अगर तुम मानसिक दुख से मुक्त होना चाहते हो तो सर्वप्रथम दुखों के मूल तृष्णा को हटायो । तृष्णा को दूर किये बिना मानसिक दुख नही मिट सकता । कुछ लोग कहा करते है कि हमारा दुख मिटता नही है, किन्तु जब तक दुख का कारण तृष्णा मोजूद है, दुख किस प्रकार दूर होगा ?
प्रश्न किया जा सकता है- तृष्णा कैसे जीती जाये ? इसके उत्तर में कहा गया है
'मैत्री करुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्य विषयाणां भावनात् चित्तप्रसादनम् ।'
अर्थात् - मैत्री, करुणा, प्रमोद और उपेक्षा की भावना करने से तथा इस प्रकार चित्त को प्रसन्न रखने से तृष्णा मिट सकती है और शांति प्राप्त हो सकती है ।
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इस कथन पर फिर प्रश्न उपस्थित होता है कि शुद्ध भावना रखने से तृष्णा मिट जाती है, यह तो ठीक है, लेकिन भावना-शुद्धि का उपाय क्या है ? इस सम्बन्ध में कहा है
सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदम्,
क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्ती,
सदा ममात्मा विदधातु देव ! ॥
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अर्थात् - हे प्रभो । मेरे हृदय में प्रत्येक जीव के प्रति मैत्रीभाव रहे, गुणीजनो के प्रति प्रमोदभाव रहे, दुखी जीवों