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तीसरा बोल-१७७
की जो अवहेलना हो रही है, उसका एक कारण धर्म के स्वरूप को न समझना है। लोगो को यह भी पता नही कि धर्म किस कार्य का कारण है ? धर्म सम्बन्धी इस अज्ञान के कारण ही धर्म से विपरीत फल की आशा की जाती है। जब विपरीत फल मिलता नही तो धर्म के प्रति अरुचि पैदा होती है ।
हमारे अन्त करण मे धर्मश्रद्धा है या नहीं, इस बात को परीक्षा करने का 'थर्मामीटर' सातावेदनीय के सुखो के प्रति अरुचि उत्पन्न होना है । आप इस 'थर्मामीटर' द्वारा अपनी जाच कीजिए कि वास्तव मे आप मे धर्मश्रद्धा है या नही । अगर आप मे धर्मश्रद्धा होगी तो सातावेदनीयजन्य सुखो के प्रति आपको अरुचि अवश्य होगी।
मान लीजिए, आप भोजन करने बैठे हैं । थाल परोसा हुआ आपके सामने है । इसी समय आपका कोई विश्वासपात्र मित्र आकर यदि भोजन में विष मिला है इस बात की सूचना देता है तो क्या आपको वह भोजन खाने की रुचि होगी ? नही। इसी प्रकार सच्ची धर्मश्रद्धा उत्पन्न होने पर सातावेदनीय-जन्य सुखो के प्रति रुचि नही हो मकती । इस प्रकार जब सासारिक विषयभोगो के प्रति विरक्ति हो तो समझना चाहिए कि मुझ मे धर्मश्रद्धा है।
कहा जा सकता है कि, हम तो उसी को धर्म मानते हैं जो हमे अधिक से अधिक सुख प्रदान करे, सुखो के प्रति अरुचि उत्पन्न करने वाले को हम धर्म नहीं, अधर्म समझते हैं । उसे जीवन मे किस प्रकार स्थान दिया जा सकता है ? आपके कहे धर्म से तो कोई सुख नही मिलता । इसके