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१७६-सम्यक्त्वपराक्रम (१)
हीरा-मोती निकलने की आकाक्षा नही रखता । कुम्भार, जुलाहा और किसान भी ऐसी भूल नहीं करते तो धर्मात्मा कहलाने वाले लोग धर्म से पुत्र या धन की प्राप्ति की प्राशा किस प्रकार रख सकते है ? यह तो कुम्भार भी जानता है कि कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति नही होती। जो जिसका कारण ही नहीं, उससे वह कैसे पैदा होगा ? स्त्रिया जव भात पकाती है तो क्या वर्तन मे मोती पैदा हो जाने की वात सोचती है ? ऐसा न सोचने का कारण यही है कि उन्हे पता है कि कारण होगा तो कार्य होगा, अन्यथा नही। इस प्रकार लोक में कारण के विरुद्ध कार्य की कोई इच्छा नही करता तो फिर धर्म के विपय मे ही यह भूल क्यो हो रही है ? जो धर्य ससार का कारण ही नही है उससे सासारिक कर्य होने की इच्छा क्यों की जाती है ?
तो फिर धर्मश्रद्धा का वास्तविक फल क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान् ने बतलाया है कि - 'धर्मश्रद्धा का फल मसार के पदार्थों के प्रति अरुचि उत्पन्न होना है।' धर्मश्रद्धा उत्पन्न होने पर सासारिक पदार्थों के प्रति रही हई रुचि हट जाती है-अरुचि उत्पन्न हो जाता है। इस स्थिति में ससार के भोगविलास एवं भोगविलास. के साधन सुखप्रद प्रतीत नही होते । लोग वर्मश्रद्धा के फलस्वरूप मोह या विकार की अाशा रखते हैं, परन्तु शास्त्र कहता है कि धर्मश्रद्धा का फल सासारिक पदार्थों के प्रति अरुचि जागना है। कहा तो सासारिक पदार्थों के प्रति निर्ममत्व और कहाँ 'सांसारिक पदार्थों की चाह ! धर्म से इस प्रकार विपरीत 'फल की आगा रखना कहाँ तक उचित है ?
यह पहले ही कहा जा चुका है कि आजकल धर्म