________________
तीसरा बोल-१७५
है, उस सद्भावना को अपने जीवन में प्रकाशित करो तो आपका कल्याण अवश्य होगा । जहा ऐमी सद्भावना है वही सच्ची धर्मश्रद्धा है । इस प्रकार सद्भावना धर्मश्रद्धा की कसौटी है । सच्ची धर्मश्रद्धा को अपने जीवन में जिसे प्राप्त करना है उसे दुर्भावना का त्याग कर इसी प्रकार की सद्भावना प्राप्त करनी चाहिए ।
मूल प्रश्न है-धर्मश्रद्धा का फल क्या है ? इस सवध मे थोडी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। मगर इस विषय मे थोड़ा और विचार करना आवश्यक है । आज बहुत से लोग धर्म के फल के सम्बन्ध मे गडबड में पड़े हुए हैं। कुछ लोगो ने समझ रखा है कि धर्म का फल इच्छित वस्तुओ की प्राप्ति अर्थात् सासारिक ऋद्धि-सिद्धि आदि मिलना है। पुत्रहीन को पुत्र की प्राप्ति हो, निर्धन को धन प्राप्त हो, इसी प्रकार जिसे जिस वस्तु की अभिलाषा है उसे वह प्राप्त हो ज ये तो समझना चाहिए कि धर्म का फल मिल गया । ऐसा होने पर ही धर्मश्रद्धा उत्पन्न हो सकती है । जैसे भोजन करने से तत्काल भूख मिट जाती है, पानी पीने से प्यास बुझ जाती है, उसी प्रकार धर्म से भी आवश्यकताओ की पूर्ति हो तभी धर्म पर श्रद्धा जाग सकती है।
____इस प्रकार धर्म से पुत्र-धन आदि की आशा रखने वालो से शास्त्रकार कहते हैं. कि तुमने अभी धर्म-तत्त्व समझा ही नही है । कुम्भार जब मिट्टी लेकर घडा बनाने बैठता है तब वह मिट्टी मे से हाथी-घोडा निकलने की आशा नही रखता । जुलाहा सूत लेकर कपडा बुनने बैठता है तो सूत मे से तांबा-पीतल निकलने की आशा नही रखता । किसान बड़े परिश्रम से खेती करता है, मगर-पौधो मे से