________________
१७०-सम्यक्त्वपराक्रम (१) इसी मे तो मेरे धर्म की सच्ची कसौटी है ।
कहा जाता है कि धर्म के कारण हो रामचन्द्रजी को राज्य त्याग कर वनवास करना पड़ा था । मगर जिस धर्म के पालन के लिए रामचन्द्रजी को राज्य छोडना पडा था, वह धर्म उन्हे प्रिय लगा था या अप्रिय ? अगर रामचन्द्रजी को धर्म प्रिय लगा था तो दूसरो को राम के नाम पर धर्म की निन्दा करने का क्या अधिकार है ? र नल-दमयन्ती और पाण्डवो वगैरह के विषय मे भी यही बात कही जा सकती है । मगर नल-दमयन्ती और पाण्डव आदि- जिन्होने कष्ट भोगे थे-- जव धर्म को बुरा नही कहते तो फिर उनका नाम लेकर धर्म की निन्दा करने का किसी गैर को क्या अधिकार है ? नल-दमयन्ती और पाण्डव वगैरह कष्टो' को जब धर्म की कसौटी समझते थे, तो फिर इन्ही का नाम लेकर धर्म को बदनाम करना कहा तक उचित है । सत्य तो यह है कि धर्म किसी भी समय निन्दनीय नही गिना गया है, । धर्म सर्वदा सर्वतोभद्र है अतएव धर्मभ्रम या धर्मान्धता को आगे लाकर धर्म की निन्दा करना किसी भी प्रकार समुचित नही है।
धर्म का सम्बन्ध सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के साथ है । जहा इनमें से एक भी नहीं है, वहा धर्मतत्त्व भी नही है । जहाँ यह रत्नत्रय है वही सच्चा धर्म है । धर्मभ्रम या धर्मान्धता तो स्पष्टतः धर्माभास है-अधर्म है । प्रजा को हैरान करना, परधन और परस्त्री का अपहरण करना तो साफ अधर्म है, फिर भले ही वह धर्म के नाम पर ही क्यो न प्रसिद्ध किया जाये ।