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तीसरा बोल - १७१
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धर्म तो इस विचार में है कि- मैं स्वय तो असत्य बोलूंगा ही नहीं, अगर कोई दूसरा मुझ मे असत्य बोलेगा तो भी मैं असत्य नही बोलूंगा। मैं स्वय तो किसी की चीज का अपहरण करूँगा ही नही, अगर मेरी वस्तु का कोई अपहरण करेगा तो भी मैं यह विचार तक नही करूंगा कि मैं उसको किसी वस्तु का अपहरण करूँ, उसका कुछ बिगाड करूँ। मैं किसी पर क्रोध भी नही करूंगा । मैं थप्पड का का बदला थप्पड से नही, प्रेम से दूँगा । जिसके अन्त करण' मे धर्म का वास होगा, वह इस प्रकार का विचार करेगा । जो लोग धर्म के नाम पर थप्पड का बदला थप्पड़ से देते हैं अथवा परधन और परस्त्री के अपहरण की चिन्ता में दिनरात डूबे रहते हैं वही लोग धर्म को निन्दा कराते हैं ।
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दूसरो की बात जाने दीजिए, सिर्फ आप अपनी आत्मा से प्रश्न कीजिए -' आत्मन् ' तू धर्म की निन्दा करवाती है या प्रशसा ? अगर आप धर्म की प्रगसा कराना चाहते हैं तो विचार कीजिए कि आपको कैसा व्यवहार करना चाहिए? आप भूलकर भी कभी ऐसा व्यवहार मत कीजिये जिससे धर्म की निन्दा हो । सदा ऐसा ही व्यवहार कीजिए जिससे धर्म की प्रशसा हो । इस प्रकार धर्मोदय का विचार करके सद्व्यवहार कीजिए । धर्म पर दृढ श्रद्धा रखने का परिणाम यह होता है कि साता वेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त होने वाले सुख के प्रति वैराग्य उत्पन्न होता है और हृदय में यह भावना प्रबल होने लगती है कि मैं अपने सुख के लिए किसी और को दुख नही पहुचा सकता । मेरा धर्म ही दूसरो को सुख पहुचाना है। इस तरह विचार