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। तीसरा बोल-१६६ इस बात का खयाल रखना चाहिये कि हमारे किसी भी व्यवहार के कारण धर्म की निन्दा न होने पाये । साधुसाध्वियो के साथ ही आप-श्रावको को भी अपने कर्तव्य का विचार करना चाहिए। धार्मिक कहलाते हुए भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप मे परधन या परनारी का अपहरण करना धर्म की निन्दा करने के समान है । अगर आप धर्म की निदा नहीं कराना चाहते तो एक भी कार्य ऐसा मत करो जिससे धर्म की निन्दा होती हो । धर्म की निन्दाया प्रशसा धर्मपालको के धर्मपालन पर निर्भर करती है । हम और तुम अर्थात् साधु और श्रावक अगर दृढता-पूर्वक अपने-अपने धर्म का पालन करे तो धर्म-निन्दको पर भी उसका असर हुए बिना नही रह सकता । एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब वह भी धर्म का माहात्म्य समझेंगे और धर्म को निन्दा करने के बदले प्रशसा करने लगेंगे ।
पहले यह दलील दी गई है कि धर्म की बदौलत सिर पर सकट पाते है। इसका सक्षेप मे यही उत्तर दिया जा सकता है कि कष्ट तो धर्म की कसौटी है । हम मे वास्तव मे धर्म है या नहीं, इस बात की परीक्षा कष्ट पाने पर ही होती है। धर्म के कारण जिन्होने कष्ट उठाये हैं उनसे पूछो कि धर्म के विषय मे वह क्या कहते हैं ? कदाचित् सीता से पूछा जाता 'रामचन्द्रजी ने तुम्हे अग्नि मे प्रवेश करने के लिए विवश किया, तो अब रामचन्द्रजी तुम्हे प्रिय है यो नही ?' तो सीता इस प्रश्न का क्या उत्तर देती ? सीता कहती-रामचन्द्रजी ने मेरी अग्नि-परीक्षा करके मेरे धर्म की कसौटी की है । धर्म के प्रताप से मैं अग्नि को शांत करूँ, धर्म की निन्दा दूर करके धर्म की महिमा का विस्तार करूँ,