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दूसरा बोल-१४७
रहा ।
ललिताग को अपने कब्जे में करके रानी ने उसके साथ विषयभोग करने की तैयारी की। इसी समय रानी को महल मे राजा के आगमन की सूचना मिली। यह सूचना मिलते ही रानी का मुंह उतर गया। रानी की अचानक यह उदासीनता देखकर ललिताग ने पूछा- 'अभी-अभी तो मेरे साथ तुम हँस बोल रही थी और अब एकाएक उदासीन हो गईं । इसका क्या कारण है ?' रानी ने उत्तर दिया- 'उदासी का कारण यह है कि राजा महल मे आ, रहा है । अब क्या करना चाहिये सो कुछ नही सूझता !' राजा के महल मे आने के समाचार सुनने ही ललिताग भय से कापने लगा । उसने दीनतापूर्वक रानी से कहा- 'मुझे जल्दी से कही न कही छिपाओ । राजा ने मुझे देख लिया तो शरीर के टुकड़े-टुकडे करवा डालेगा । क्षत्रिय का और उसमे भी राजा का कोप बडा ही भयकर होता है।' रानी बोली- 'इस समय तुम्हे कहाँ छिपाऊँ । ऐसी कोई जगह भी तो नही दीखती जहाँ छिपा सकू। अलबत्ता, पाखाने में छिपने लायक थोडी जगह है। राजा पाखाने की तरफ नजर भी नही करेगा और जब वह चला जायेगा तो मैं बाहर निकाल,
नहीं करेगा औराडी जगह है। सकू । अलब
लूगी।'
पाखाने मे रहने की इच्छा किसे होगी ? किसी को नही तो फिर सुगध में रहने वाले ललिताग को पाखाने में रहना क्यो रुचिकर हुआ? इसका एकमात्र कारण था भय ! पाप मे निर्भयता कहाँ ? ललितांग पापजन्य भय के कारण पाखाने में छिपने के लिए विवश हो गया। रानी ने अपनी दासी से कहा- 'इन्हे पाखाने में छिपा आ।' रानी की