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१४६ - सम्यक्त्वपराक्रम (१)
उन्ही से यह कहा गया है कि जैसे विष्ठा स्वेच्छापूर्वक त्यागी हुई वस्तु है उसी प्रकार सासारिक विषयसुख भी स्वेच्छापूर्वक त्यागी हुई चीज है । आत्मिक सुख का भोग देकर विषयसुखो को इच्छा मत करो। तुम्हारे लिए यह विष्ठा से भी अधिक बुरे हैं । तुम्हारे अन्त करण में इन विषयभोगो के प्रति निर्वेद उत्पन्न होगा अर्थात् इनके त्याग के लिए तीव्र वैराग्य होगा तभी तुम्हारा त्याग टिक सकेगा | 'त्याग वैराग्य के बिना नहीं टिकता' इस कथन के अनुसार त्याग के साथ निर्वेद होना आवश्यक है । जीवन मे निर्वेद - सच्चा वैराग्य होने पर हो साधुता स्थिर रह सकती है । जिस वस्तु के प्रति एक बार हृदय मे तव्र घृणा उत्पन्न हो जाती है, बुद्धिमान् पुरुष उसे फिर ग्रहण नही करते । इस विषय मे कथा-ग्रन्थो में एक उदाहरण आया है । प्रासंगिक होने के कारण आपको सुनाता हू ।
किसी सेठ के ललिताग नामक पुत्र था । ललिताग अपने नाम के अनुसार सुन्दर और गुणवान् था | एक बार वह कही बाहर जा रहा था कि अपने महल मे से रातो ने उसे देखा । ललिताग को देखकर रानो सोचने लगो - 'यह कुमार बडा ही ललित - सुन्दर है । ऐमे सुन्दर पुरुष के बिना नारी का जीवन निरथक है । किसी भी उपाय से इसे प्राप्त करना ही चाहिये ।' इस प्रकार विचार कर रानी ने अपनी एक विश्वासपात्र दासी भेजी और उसे गुप्त मार्ग द्वारा महल में बुलाया | रानो ने अपनो मादकतापूर्ण कामदृष्टि से ललिताग को मुग्ध कर दिया । रानो का सौन्दर्य देखकर ललिताग भी उस पर मोहित हो गया । वह इतना मुग्ध हुआ कि अपने घरबार का भी खयाल उसे न