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दूसरा बोल- १४५
ससार के समस्त सुख विष्ठा के ही समान हैं । इन पर ललचाना क्या शूकर के ही समान कृत्य नही है ? जब ससार के सुख विष्ठा के समान खराब और अरुचिकर प्रतीत होने लगे तब समझना चाहिए कि निर्वेद हमारे हृदय मे जागृत हो गया है । किसी के कहने से थोडी देर के लिए निवेद उप्पन्न होना दूसरी बात है, मगर यदि सवेग के साथ निर्वेद उत्पन्न हो अर्थात् अन्तर से सासारिक सुख विष्ठा के समान त्याज्य प्रतीत होने लगे और यह भाव स्थायी बन जाये तब समझना चाहिए कि हमारे हृदय में सच्चा निर्वेद उत्पन्न हो गया है ।
सचाई यह है कि आज हम लोगो की आत्मा भी शूकर के समान ही भूल कर रही है । क्या हमारी आत्मा सद्गुणो का त्याग कर दुर्गुणो की ओर नही दौडती है ? यह भूल क्या शूकर की भूल से कुछ कम है ? नही, वरन् कई दृष्टियों से शूकर की भूल की अपेक्षा भी अधिक भयकर है अगर कोई मनुष्य अपना शरीर मल से लिप्त करे तो सरकार उसे दंड नही देती, लेकिन दुर्गुण, दुराचार की तो शास्त्र से भी निदा की गई है और दुर्गुण-दुराचार वाले को सरकार भी दड देती है । विष्ठा से बाह्य अशुचि ही मानी जाती है और वह सरलता से दूर भी की जा सकती है, मगर दुर्गुणो से आन्तरिक अपवित्रता उत्पन्न होती है और वह वडी कठिनाई से हटाई जाती है, यहाँ तक कि भव भवान्तर तक भी नही मिटती । इस प्रकार दुर्गुण विष्ठा से भी अधिक बुरे हैं । ऐसी स्थिति में सद्गुण त्याग कर दुर्गुण ग्रहण करना एक प्रकार की शूकरवृत्ति ही कही जा सकती है । शास्त्र मे यह उपदेश प्रधानतया साधुओ के लिए है ।