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६ - सम्यक्त्वपराक्रम (१)
साराश यह है कि इस सूत्र का 'उत्तराध्ययन' नाम पडने का कारण यह है कि यह सूत्र क्रमप्रधान है । क्रम का तात्पर्य यहाँ भावक्रम है और भाव मे भी क्षायोपशमिक भाव से अभिप्राय है ।
कहा जा सकता है कि यह सूत्र क्षायोपशमिक भाव मे ही क्यो है ? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है -- अनुयोगद्वारसूत्र मे बतलाया गया है कि चार ज्ञान स्थापना रूप है । लेना, देना, समझना - समझाना वगेरह कार्य श्रुतज्ञान से ही होते हैं और श्रुतज्ञान का समावेश क्षायोपशमिक भाव मे है । इसीलिए यह सूत्र भी क्षायोपशमिक भाव में है । क्षायोपामिक भाव में भी क्रम है । इस क्रम मे आचारागसूत्र प्रथम है और यह उत्तराध्ययनसूत्र उससे पीछे है और इसी कारण आचारागसूत्र के पश्चात् ही यह सूत्र पढाया जाता है । इस कारण इसे 'उत्तराध्ययन' सूत्र कहते है ।
यद्यपि क्रम यही है, किन्तु ऊपर उद्धृत की हुई गाथा मे नियुक्तिकार ने 'तु' पद का जो प्रयोग किया है, उससे पूर्वोक्त क्रम से भिन्न क्रम का भी बोध होता है । आचाराग को पढाने के पश्चात् ही उत्तराध्ययन को पढाने का क्रम शय्यभव आचार्य तक ही चला । जब शय्यभव आचार्य ने दशवैकालिक सूत्र की रचना की तब दशवैका लिकसूत्र पहले और उत्तराध्ययन सूत्र उसके बाद पढाया जाना आरम्भ हो गया । इस प्रकार आचाराग का स्थान दशवैकालिक ने ले लिया । फिर भी उत्तराध्ययनसूत्र अपने स्थान पर ही रहा । इस त्रम - परिवर्तन से ज्ञात होता है कि उत्तराध्ययनसूत्र, दशवकालिक से पहले की रचना है ।