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सूत्रपरिचय-७
दावैकालिकसूत्र की रचना के विषय मे एक कथा प्रसिद्ध है कि शय्यभव आचार्य के निकट उनका पुत्र भी सयम का पालन करता था अर्थात् मुनि था। उन्होने किसी साधु को नही बतलाया था कि यह साधु ससार-पक्ष का मेरा पुत्र है। शय्यभव आचार्य को यह मालूम हो गया कि इस साधु की उम्र सिर्फ छह महीना शेष है। उन छह महीनो मे हो वह मुनि अपनी आत्मा का कल्याण कर सके, इस उद्देश्य से शय्यभव आचार्य ने दशवकालिक सूत्र की रचना की थी।
शय्यभव आचार्य के ससार-पक्ष के पुत्र का नाम मणिकपुत्र था । मणिकपुत्र के कालधर्म पाने पर शय्यभव आचार्य को कुछ खेद हुआ । यह देखकर साधुओ ने उनसे पूछा- 'महाराज । जब अन्य मुनि कालधर्म पाते है तब आपको इतना खेद नही होता, फिर इस शिष्य के वियोग से इतना खेद क्यो हो रहा है ?' आचार्य ने साधुओ से कहा-'यह शिष्य मेरा अगजात ही था' यह सुनकर साधुओं ने कहा- 'आपने हम लोगो को पहले यह बात क्यो नही बतलाई ?' आचार्य बोले-'अगर यह बात तुम्हे पहले बता दी होती तो तुम उसे लाड लडाते और उसको आत्म-कल्याण में बाधा उपस्थित होती । उसको आयु छह महीना शेष है, यह बात मुझे मालूम हो गई थी। इस अल्पकाल में ही वह आत्मकल्याण कर सके, इस उद्देश्य से मैंने पूर्व अगो मे से उधत करके दशवैकालिकसूत्र की रचना की थी । अब वह कालधर्म पा चुका है, अतः इस सूत्र को जिस शास्त्रसागर से सकलित किया गया है, उसी मे फिर मिलाये