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१३४ - सम्यक्त्वपराक्रम (१)
आया ।
रात्रि के समय उसने पत्नी से कहा 'तुम्हारे लिये एक चीज लाया हू, मगर तुम्हारा शरीर बहुत नाजुक है । मालूम नही वह तुम्हे रुचेगी या नहीं ? पत्नी ने पूछा'क्या चीज है ? उसने कहा- 'हार है, मगर भारो वहुत हे तुम्हारा शरीर नाजुक है। हार का भार संभाल सकेगा या नही, शका ही है ।' पत्नी बोली- 'दिखाओ तो सही, कैसा है वह हार ।' उसने, उत्तर दिया- 'उस ट्रक मे रखा है । निकाल लाओ श्रीर देख लो ।' बहू ने हार देखा तो बहुत पसन्द किया । प्रसन्न होकर वह कहने लगी- यह हार इतना क्या भारी है । मैंने अपने पिता के घर तो इससे चांगुने भारी हार पहरे हैं ।' उसने कहा - 'ठीक है । तुम्हे रुचता हो और उठा सकती हो तो पहनो । हार भारी है और तुम नाजुक हो, जरा इसका खयाल रखना ।' वहू ने उपालभ के स्वर में कहा- 'यह क्यो नही कहते कि रोज पहनन से हार घिस जाएगा । में तो पहले ही कह चुकी ह कि मैंने इसमे चार गुने भारी हार अपने पिता के घर पहने है ।' उसने कहा- 'मैं तो तुम्हारी दया के खातिर हो यह कहता हू । अगर तुम हार का बोझ उठा सकती हो तो रोज हो । उसके लिए मेरी कोई मनाई नही है ।' वह रोज हार पहरने लगी । पहले के लोग घर का काम-काज हाथ से ही करते थे । श्राज यह स्थिति है कि थोटा वन हुआ नही कि घर का कामकाज करना छोड़ दिया और नौकरी में काम कराने लगे। इस प्रकार आज के लोग दूसरी में काम कराने मे ही अपनी श्रीमताई समझते हैं, मगर पहले के लोग श्रीमत होने पर भी अपने हाथो अपना