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पहला बोल - १३५
काम करने में गोरव मानते थे ।
वह बहू भी पीसना, पानी भरना वगैरा सब घरू काम अपने ही हाथ से करती थी । जब वह पीसने बैठती ती वह हार उसकी छाती से टकराता और लगता भी सही, पर आभूषण पहनने के लोभ से वह हार पहने हो रहती, उतारती नही ।
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सेठ के लडके ने विचार किया - मेरी पत्नी आभूषणों के लोभ की मारी हार छोडती नही है, मगर बहुत दिनों तक उसे भुलावे में रखना ठीक नही है । ऐसा विचार कर उसने लोहे पर चढाया हुआ सोने का पतरा एक जगह से उखाड दिया और वह सो गया ।
सुबह बहू ने पहनने के लिए हार उठाया तो उसने देखा - सोने के पतरे के नीचे लोहा है । देखते ही वह बोली'हाय ! मुझे कैसा बेवकूफ बनाया ! यह किस समय का वेर भजाया है ?" लडके की नीद खुल गई। पूछा- 'क्या हुआ ?" पत्नी बोली- 'मैंने ऐसा क्या बिगाड किया था कि इतना भारी लोहा मेरे गले मे डाला ?" सेठ के लडके ने कहा- 'मैंने तो पहले ही कह दिया था कि हार बहुत भारी है ।' पत्नी बोली- 'मगर मैं इसे लोहे का नही सोने का समझी थी ।' वह बोला- 'क्या लोहे में ही वजन होता है सोने मे नही होता ? तुमने उस दिन तो कहा था कि इससे चौगुने भारी हार तुमने अपने मायके में पहने हैं, और आज इतने से वजन के लिए चिल्लपों मचा रही हो । तुमने इतने दिनों तक तो इस हार का भार छानी पर वहन किया, मगर उस दिन मेरी माता ने सिला और लोढा उठाने को