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४-सम्यक्त्वपराक्रम (१) अप्रधान भी है ? ऐसा मानना सदोप है । अतएव यही कहना उचित है कि यह सूत्र क्रम से अन्य सूत्र से प्रधान है अर्थात क्रमप्रधान है।
प्रस्तुत मूत्र के 'उत्तराध्ययन' नाम का रहस्य समझाने के लिए टीकाकार कहते है 'उत्तर' शब्द के अनेक निक्षेप होते हैं, परन्तु मूल निक्षेप नाम, स्थापना, द्रव्य पीर भाव-यह चार ही है । अतएव यहाँ उन्ही के आधार पर विचार किया जाता है । इन चार निक्षेपो में से भी नामनिक्षेप और स्थापनानिक्षेप सुगम और थोडे अर्थ वाले होने से छोड देते हैं। शेप दो-द्रव्य निक्षेप भीर भावनिक्षेप के याधार पर ही विचार किया जाता है।
'उत्तर' शब्द के द्रव्य अर्थ मे जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम भेद होते है । जघन्य का अर्थ 'छोटा' होता है । छोटा कहने में यह भी मानना पडता है कि कोई उससे बड़ा भी है, क्योकि बड़े की अपेक्षा ही छोटा हो सकता है। वटा न हो तो छोटा नहीं हो सकता । अर्थात् छोटे से कोई उत्तर-वडा होना ही चाहिये । किसी चीज को उत्कृष्ट कहने का अभिप्राय यह कि दूसरी चीज उससे बड़ी नहीं है । इस प्रकार जघन्य स-उत्तर है और उत्कृष्ट अनुत्तर है। तीसरा भेद मध्यम है, जो स-उत्तर भी है और निरुत्तर भी है। उदाहरणार्थ- एक, दो और तीन के अको में दो का अक मध्यम है। दो का यह अक एक ही अपेक्षा उत्तर है और तीन के अक की अपेक्षा अनुत्तर है । एक का अक स-उत्तर ही है। जघन्य अर्थात् छोटे से छोटा वडे की अपेक्षा रखता है और किसी के वदा होने से ही कोई छोटा होता है, इसीलिए वह स-उत्तर है । परन्तु जो उत्कृष्ट होता है, वह जघन्य