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________________ ८४ - सम्यग्दशन है। केवलज्ञान होनेपर एक ही पर्यायमें लोकालोक का पूर्ण ज्ञान समाविष्ट हो जाता है, मति-श्रुत पर्यायमें भी अनेकानेक भावोंका निर्णय समाविष्ट हो जाता है। यद्यपि पर्याय स्वयं एक समयकी है तथापि उस एक समयमें सर्वज्ञ के परिपूर्ण द्रव्य गुण पर्यायको अपने ज्ञानमें समाविष्ट कर लेती है । सम्पूर्ण अरिहन्तका निर्णय एक समयमें कर लेनेसे पर्याय चैतन्यकी गांठ है।। अरिहन्तकी पर्याय सर्वतः सर्वथा शुद्ध है। यह शुद्ध पर्याय जव ख्यालमें ली तब उस समय निजके वैसी पर्याय वर्तमानमें नहीं है तथापि यह निर्णय होता है कि मेरी अवस्थाका स्वरूप अनंत ज्ञान शक्तिरूप सम्पूर्ण है, रागादिक मेरी पर्यायका मूल स्वरूप नहीं है। इसप्रकार अरिहन्तके लक्ष्यसे द्रव्य गुण पर्याय स्वरूप अपने आत्मा को शुभ विकल्पके द्वारा जाना है। इसप्रकार द्रव्य गुण पर्यायके स्वरूपको एक ही साथ जान लेनेवाला जीव बादमें क्या करता है और उसका मोह कब नष्ट होता है यह अब कहते हैं। "अब इस प्रकार ....अवश्यमेव प्रलयको प्राप्त होता है" (गाथा ८० की टीका) द्रव्य-गुण-पर्यायका यथार्थ स्वरूप जान लेनेपर जीव त्रैकालिक द्रव्यको एक कालमें निश्चित कर लेता है। आत्माके त्रैकालिक होनेपर भी जीव उसके त्रैकालिक स्वरूपको एक ही कालमें समझ लेता है। अरिहन्तकी द्रव्य-गुण-पर्यायसे जान लेनेपर अपने में क्या फल प्रगट हुआ है यह बतलाते हैं । त्रैकालिक पदार्थको इसप्रकार लक्ष्यमें लेता है कि जैसे अरिहन्त भगवान त्रिकाली आत्मा है वैसा ही मैं त्रिकाली आत्मा हूँ। त्रिकाली पदार्थ को जान लेनेमें त्रिकाल जितना समय नहीं लगता। किन्तु वर्तमान एक पर्यायके द्वारा कालिकका ख्याल हो जाता है-उसका अनुमान हो जाता है। क्षायिक सम्यक्त्व क्यों कर होता है। इसकी यह बात है। प्रारम्भिक किया यही है। इसी क्रियाके द्वारा मोहका क्षय होता है।
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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