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________________ श्री भगवानकुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला ८५ जीवको सुख चाहिये है। इस जगतमें संपूर्ण स्वाधीन सुखी श्री रिहन्त भगवान हैं । इसलिये 'सुख चाहिये है' का अर्थ यह हुआ कि स्वयं भी अरिहन्त दशारूप होना है । जिसने अपने आत्माको अरिहन्त जैसा माना है वही स्वयं अरिहन्त जैसी दशारूप होनेकी भावना करता है । जिसने अपनेको अरिहन्त जैसा माना है उसने अरिहन्त के समान द्रव्य गुण पर्याय के अतिरिक्त अन्य सब अपने आत्मामेंसे निकाल दिया है । (यहाँ पहले मान्यता- श्रद्धा करने की बात है ) परद्रव्यका कुछ करनेकी मान्यता, शुभराग से धर्म होनेकी मान्यता तथा निमित्त से हानिलाभ होने की मान्यता दूर हो गई है, क्योंकि अरिहन्तके आत्माके यह सब कुछ नही है । द्रव्य गुण पर्याय का स्वरूप जानने के बाद क्या करना चाहिये ? अरिहन्तके स्वरूपको द्रव्य गुण पर्याय रूपसे जानने वाला जीव त्रैकालिक आत्माको द्रव्य गुण पर्याय रूपसे एक क्षणमें समझ लेता है । बस ! यहाॅ को समझ लेने तक की बात की है वहाँ तक विकल्प है, विकल्पके द्वारा आत्म लक्ष्य किया है, अब उस विकल्पको तोड़कर द्रव्ण गुण पर्यायके भेदको छोड़कर अभेद आत्माका लक्ष्य करनेकी बात करते हैं। इस अभेदका लक्ष्य करना ही अरिहन्तको जाननेका सच्चा फल है और जब अभेदका लक्ष्य करता है तब उसी क्षण मोहका क्षय हो जाता है । जिस अवस्थाके द्वारा अरिहन्तको जानकर त्रैकालिक द्रव्यका ख्याल किया उस अवस्थामें जो विकल्प होता है वह अपना स्वरूप नहीं है, किन्तु जो ख्याल किया है वह अपना स्वभाव है । ख्याल करनेवाला जो ज्ञान है वह सम्यकज्ञानकी जातिका है, किन्तु अभी पर लक्ष्य है इसलिये यहाँतक सम्यक दर्शन प्रगट रूप नहीं है । अब उस अवस्थाको पर लक्षसे हटाकर स्वभावमें संकलित करता है-भेदका लक्ष्य छोड़कर अभेदके लक्ष्यसे सम्यक दर्शनको प्रगट रूप करता है । जैसे मोतीका हार मूल रहा हो तो
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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