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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
८३ • द्रव्य-गुण त्रैकालिक हैं, उसके प्रतिक्षणवर्ती जो भेद हैं सो पर्याय है। पर्यायकी मर्यादा एक समय मात्रकी है । एक ही समयकी मर्यादा होती है इसलिये दो पर्याय कभी एकत्रित नहीं होती। पर्यायें एक दूसरेमें अप्रवृत्त है, एक पर्याय दूसरी पर्यायमें नहीं आती इसलिये पहली पर्यायके विकाररूप होनेपर भी मैं अपने स्वभावसे दूसरी पर्यायको निर्विकार कर सकता हूँ। इसका अर्थ यह है कि विकार एक समय मात्रके लिये है और विकार रहित स्वभाव त्रिकाल है। पर्याय एक समय मात्र के लिये ही होती है यह जान लेनेपर यह प्रतीति हो जाती है कि विकार क्षणिक है । इसप्रकार अरिहन्तके साथ समानता करके अपने स्वरूपमें उसे मिलाता है।
चेतनकी एक समयवर्ती पर्यायें ज्ञानकी ही गांठे है। पर्याय का सम्बन्ध चेतनके साथ है। वास्तवमें राग चेतनकी पर्याय नहीं है क्योंकि अरिहन्तकी पर्यायमें राग नहीं है। जितना अरिहन्तकी पर्यायमें होता है उतना ही इस आत्माकी पर्यायका स्वरूप है।
पर्याय प्रति समय की मर्यादा वाली है। एक पर्यायका दूसरे समय में नाश हो जाता है इसलिये एक अवस्थामें से दूसरी अवस्था नहीं आती, किन्तु द्रव्यमें से ही पर्याय आती है, इसलिये पहिले द्रव्यका स्वरूप बताया है। पर्यायमें जो विकार है सो स्वरूप नहीं है किन्तु गुण जैसी ही निर्विकार अवस्था होनी चाहिये इसलिये बादमें गुणका स्वरूप बताया है। राग अथवा विकल्पमेंसे पर्याय प्रगट नहीं होती क्योंकि पर्याय एक दूसरे में प्रवृत्त नही होती। पर्यायको चिद् विवर्तन की ग्रन्थी क्यों कहा है ? पर्याय स्वयं तो एक समय मात्रके लिये है परन्तु एक समय की पर्यायसे त्रैकालिक द्रव्य को जानने की शक्ति है। एक ही समयकी पर्यायमें त्रैकालिक द्रव्यका निर्णय समाविष्ट हो जाता है। पर्यायकी ऐसी शक्ति बतानेके लिए उसे चिद् विवर्तन की ग्रन्थी कहा है।
अरिहन्तके केवलज्ञान दशा होती है, जो केवलज्ञान दशा है सो चिद् विवर्तनकी वास्तविक ग्रन्थी है। जो अपूर्ण ज्ञान है सो स्वरूप नहीं