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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला नहीं माना । ज्ञानमें अनन्त परद्रव्यका कर्तृत्व मानना ही महा अधर्म है।
और ज्ञानमें अरिहन्तका निर्णय किया कि अनंत परद्रव्यका कर्तृत्व हट गया, यही धर्म है । ज्ञानमें से पर का कर्तृत्व हट गया इसलिये अब ज्ञान में ही स्थिर होना होता है और परके लक्ष्यसे जो विकार भाव होता है उसका कर्तृत्व भी नहीं रहता । मात्र ज्ञाता रूपसे रहता है, यही मोहक्षयका उपाय है । जिसने अरिहन्तके स्वरूपको जाना वह सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा है
और वह जैनी है.। जैसा जिनेन्द्र अरिहन्तका स्वभाव है वैसा ही अपना स्वभाव है ऐसा निर्णय करना सो जैनत्व है और फिर स्वभावके पुरुषार्थ के द्वारा वैसी पूर्ण दशा प्रगट करना सो जिनत्व है। अपना निज स्वभाव जाने बिना जैनत्व नहीं हो सकता।
_जिसने अरिहन्तके द्रव्य, गुण, पर्यायको जान लिया उसने यह निश्चय कर लिया है कि मैं अपने द्रव्य, गुण, पर्यायकी एकताके द्वारा राग के कारणसे जो पर्यायकी अनेकता होती है उसे दूर करूंगा तभी मुझे सुख होगा। इतना निश्चय किया कि उसकी यह सब विपरीत मान्यतायें छूट जाती है कि मै परका कुछ कर सकता हूँ अथवा विकारसे धर्म होता है। अब स्वभावके बलसे स्वभावमें एकाग्रता करके स्थिर होना होता है तब फिर उसके मोह कहाँ रह सकता है ? मोहका क्षय हो ही जाता है। मेरे आत्मा में स्वभावके लक्ष्यसे जो निर्मलताका अश प्रगट हुआ है वह निर्मल दशा बढ़ते २ किस हद तक निर्मलरूपमें प्रगट होती है ? जो अरिहन्तके बराबर निर्मलता प्रगट होती है वह मेरा स्वरूप है, यदि यह जान ले तो अशुद्ध भावोंसे अपना स्वरूप भिन्न है ऐसी शुद्ध स्वभावकी प्रतीति करके दर्शन मोहका उसी समय क्षय करदे अर्थात् वह सम्यग्दृष्टि होजाय, इसलिये अरिहन्त भगवानके स्वरूपका द्रव्य, गुण, पर्यायके द्वारा यथार्थ निर्णय करने पर आत्माकी प्रतीति होती है और यही मोह क्षयका उपाय है।
-इसके बादअब आगे द्रव्य, गुण, पर्यायका स्वरूप बताया जायगा और यह