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-* सम्यग्दर्शन कहते हैं। भले ही अभी साक्षात तीर्थकर नहीं है तो भी ऐसे बलवत्तर निर्णयके भावसे कदम उठाया है कि साक्षात् अरिहन्तके पास नाकर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करके क्षायिक श्रेणीके वलसे मोहका सर्वथा क्षय करके केवलज्ञान अरिहन्त दशाको प्रगट कर लेंगे। यहाँ पुरुषार्थ की ही बात है, वापिस होनेकी बात है ही नहीं।
अरिहन्तका निर्णय करनेमें संपूर्ण स्वभाव प्रतीतिमें श्राजाता है। अरिहन्त भगवानके नो पूर्ण निर्मल दशा प्रगट हुई है वह कहाँ से हुई है ? जहाँ थी वहॉसे प्रगट हुई है या जहाँ नहीं थी वहाँ से प्रगट हुई है ? स्वभावमें पूर्ण शक्ति थी इसलिये स्वभावके बलसे वह दशा प्रगट हुई है, स्वभाव तो मेरे भी परिपूर्ण है, खभावमें कचाई 'नही है। बस | इस यथार्थ प्रतीतिमें द्रव्य-गुणकी प्रतीति होगई और द्रव्य-गुणकी ओर पर्याय मुकी तथा आत्माके स्वभावसामर्थ्यकी दृष्टि हुई एवं विकल्पकी अथवा परकी दृष्टि हट गई। इसप्रकार इसी उपायसे सभी आत्मा अपने द्रव्य-गुण-पर्याय पर दृष्टि करके क्षायिक सम्यक्त्वको . प्राप्त होते हैं और इसी प्रकार सभी आत्माओंका ज्ञान होता है, सम्यक्त्व का दूसरा कोई उपाय नहीं है।
अनंत आत्मायें हैं उनमें अल्प कालमें मोक्ष जाने वाले या अधिक कालके पश्चात् मोक्ष जानेवाले सभी आत्मा इसी विधिसे कर्म क्षय करते है। पूर्ण दशा अपनी विद्यमान निज शक्तिमें से आती है और शक्तिकी दृष्टि करने पर परका लक्ष्य टूट कर स्व में एकाग्रताका ही भाव रहने पर क्षायिक सम्यक्त्व होता है।
यहाँ धर्म करनेकी बात है। कोई आत्मा पर द्रव्यका तो कुछ कर ही नहीं सकता । जैसे अरिहन्त भगवान सब कुछ जानते हैं परन्तु परडव्य का कुछ भी नहीं करते । इसीप्रकार यह आत्मा भी ज्ञाता स्वरुपी है, ज्ञान स्वभावकी प्रतीति ही मोहक्षयका कारण है। क्षणिक विकारी पर्यायमें राग का कर्त्तव्य माने तो समझना चाहिये कि उस जीवने अरिहन्तके स्वरुपको