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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
___समोशरणमें बैठनेवाला जीव भी क्षेत्रकी अपेक्षासे अरिहन्तसे तो दूर ही बैठता है अर्थात् क्षेत्रकी अपेक्षासे तो उसके लिये भी दूर ही है और यहाँ भी क्षेत्रसे अधिक दूर है किन्तु क्षेत्रकी अपेक्षासे अन्तर पड़जानेसे मी क्या हुआ ? जिसके भावमें अरिहन्तको अपने निकट कर लिया है उसके लिये वे सदा ही निकट ही विराजते हैं और जिसने भावमें अरिहन्त को दूर किया है उसके लिये दूर है। क्षेत्रकी दृष्टिसे निकट हों या न हों इससे क्या होता है ? यहाँ तो भावके साथ मेल करके निकटता करनी है। अहो ! अरिहन्तके विरहको भुला दिया है तब फिर कौन कहता है कि अभी अरिहन्त भगवान नहीं है ?
यह पंचम कालके मुनिका कथन है, पंचमकालमें मुनि हो सकते । जो जीव अपने ज्ञानके द्वारा अरिहन्तके द्रव्य गुण पर्यायको जानता है उसका दर्शन मोह नष्ट हो जाता है। जो जीव अरिहन्तके स्वरूपको भी विपरीत रूपसे मानता हो और अरिहन्तका यथार्थ निर्णय किये बिना उनकी पूजा भक्ति करता हो उसके मिथ्यात्वका नाश नहीं हो सकता। जिसने अरिहन्तके स्वरूपको विपरीत माना उसने अपने आत्मस्वरूपको भी विपरीत ही माना है और इसलिये वह मिथ्यादृष्टि है । यहाँ मिथ्यात्वके नाश करनेका उपाय बताते है जिनके मिथ्यात्व का नाश हो गया है उन्हे समझाने के लिये यह बात नहीं है किन्तु जो मिथ्यात्व नाश करनेके लिये तैयार हुये हैं उन नीवों के लिये यह कहा जा रहा है । वर्तमानमें-इस कालमें अपने पुरुषार्थके द्वारा जीवके मिथ्यात्वका नाश हो सकता है इसलिये यह बात कही है, अतः समझमें नहीं आता इस धारणको छोड़कर समझनेका पुरुषार्थ करना चाहिये।
__ यद्यपि अभी क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता किंतु यह बात यहाँ नहीं की गई है। प्राचार्यदेव कहते है कि जिसने अरिहन्तके द्रव्य, गुण, पर्याय को-जानकर आत्म स्वरूपका निर्णय किया है वह जीव क्षायिक सम्यक्त्व की श्रेणी में ही बैठा है इसलिये हम अभी से उसके दर्शन मोहका क्षय