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-* सम्यग्दर्शन स्वरूपका निर्णय करे तो आत्माकी पहिचान हो और उसके लिए अरिहन्त भगवान बिल्कुल निकट ही उपस्थित हैं। यहाँ क्षेत्रकी अपेक्षासे नहीं किन्तु भावकी अपेक्षासे बात है । यथार्थ समझका संबंध तो भावके साथ है।
यहाँ यह कहा गया है कि अरिहन्त कब हैं और कब नहीं। महाविदेह क्षेत्रमें अथवा भरतक्षेत्रमें चौथे कालमें अरिहन्तकी साक्षात् उपस्थिति के समय भी जिन आत्माओंने द्रव्य-गुण-पर्यायसे अपने ज्ञानमें अरिहन्तके स्वरूपका यथार्थ निर्णय नहीं किया, उन जीवोंके लिये तो उस समय भी अरिहंतकी उपस्थिति नहीं के बरावर है और भरतक्षेत्रमें पंचमकालमें साक्षात् अरिहन्तकी अनुपस्थितिमें भी जिन आत्माओंने द्रव्य, गुण, पर्याय से अपने ज्ञानमें अरिहन्तके स्वरूपका निर्णय किया है उनके लिये अरिहन्त भगवान मानों साक्षात् विराजमान हैं।
समवशरणमें भी जो जीव अरिहन्तके स्वरूपका निर्णय करके ' आत्मस्वरूपको समझे हैं उन जीवोंके लिये ही अरिहन्त भगवान् निमित्त कहे गये हैं किन्तु जिनने निर्णय नहीं किया उनके लिये तो साक्षात अरिहन्त भगवान निमित्त भी नहीं कहलाये। आज भी जो अरिहन्तका निर्णय करके आत्म स्वरूपको समझते हैं उनके लिये उनके ज्ञानमें अरिहन्त भगवान् निमित्त कहलाते हैं। वहाँ भी आत्माको हाथमे लेकर नहीं दिखाते ।
जिसकी दृष्टि निमित्त पर है वह क्षेत्रको देखता है कि वर्तमानमें इस क्षेत्रमें अरिहंत नहीं हैं। हे भाई । अरिहन्त नहीं हैं किन्तु अरिहंतका निश्चय करनेवाला तेरा ज्ञान तो है ? जिसकी दृष्टि उपादान पर है वह अपने ज्ञानके वलसे अरिहन्तका निर्णय करके क्षेत्रभेदको दूर कर देता है। अरिहन्त तो निमित्त हैं। यहाँ अरिहन्तके निर्णय करनेवाले जानकी महिमा है। मूल सूत्रमें "जो जाणदिए कहा है अर्थान् जाननेवाले ज्ञान मोहक्षयका कारण है किन्तु अरिहन्त तो अलग ही हैं वे इस आत्माका मोहनय नहीं करते । मोहक्षयका उपाय अपने पास है।