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- सम्यग्दर्शन जो जाणदि अरहंत दव्यत्तगुणत्त पज्जयहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।।८०॥
अर्थ:-जो अरहतको द्रव्यरूपसे, गुणरूपसे, और पर्यायरूपसे जानता है, वह ( अपने) आत्माको जानता है और उसका मोह अवश्य नाशको प्राप्त होता है।
इस गाथामें मोहकी सेनाको जीतनेके पुरुषार्थका विचार करते हैं। जहाँ मोहके जीतनेका पुरुषार्थ किया वहाँ-अरहंतादि निमित्त उपस्थित होते ही हैं । जहाँ उपादान जागृत हुआ वहाँ निमित्त तो होता ही है। काल
आदि निमित्त तो सर्व जीवके सदा उपस्थित रहते है, नीव स्वयं जिस प्रकारका पुरुषार्थ करता है उसमें कालको निमित्त कहा जाता है। जब यदि कोई जीव शुभ भाव करके स्वर्गमें नाय तो उस जीवके लिये वह काल स्वर्गका निमित्त कहलाता है। यदि दूसरा जीव उसी समय पाप करके नरकमें जाय तो उसके लिये उसी कालको नग्कका निमित्त कहा जाता है,
और कोई जीव उसी समय स्वरूप समझकर स्थिरता करके नोक्ष प्राप्त करे तो उस जीवके लिये वही काल मोक्षका निमित्त कहलाता है । निमित्त तो हमेशा विद्यमान है, किन्तु जव स्वयं अपने पुरुषार्थके द्वारा अरहंतके स्वरूपका
और अपने आत्माका निर्णय करता है तब क्षायिक सम्यक्त्व अवश्य प्रगट होता है और मोहका नाश होता है।
जिसने अरहंत भगवानके द्रव्य गण पर्यायके स्वरूपको जाना है वह जीव अल्पकालमें मुक्तिका पात्र हुआ है, अरहंत भगवान आत्मा हैं, उनमें अनंत गण हैं उनकी केवलज्ञानादि पर्याय है उसके निर्णयमे आत्माके अनंतगण और पूर्ण पर्यायकी सामर्थ्यका निर्णय आजाता है उस निर्णय के वलसे अल्पकालमे केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है इसमें संदेहको कहीं स्थान नहीं है, यहाँ इस गाथामें क्षायिक सम्यक्त्व की ध्वनि है।
"जो अहंत को द्रव्यरूपमें गुणरूपमें और पर्यायरुपमें जानता है वह इस कथनमें जाननेवालेके ज्ञानकी महत्ता समाविष्ट है। थरहतको