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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला विज्ञानी जीव ज्ञानको अपने रूपमें अंगीकार करता है और रागको वन्धरूप जानकर छोड़ देता है । यह भेद ज्ञानकी ही महिमा है।।
रागके समय मै रागरूप ही हो गया हूँ ऐसा मानना सो एकान्त है, परन्तु रागके समय भी मैं तो ज्ञान रूप ही हूँ, मैं कभी राग रूप होता ही नहीं-इसप्रकार भिन्नत्व की प्रतीति करना सो अनेकात है। रागको जानते हुए ज्ञान यह जानता है कि 'यह राग है परन्तु ज्ञान यों नहीं जानता कि यह राग मै हूँ क्योंकि ज्ञान अपना कार्य रागसे भिन्न रहकर करता है। दृष्टिका बल ज्ञान स्वभाव की ओर जाना चाहिये, उसकी जगह रागकी ओर जाता है, यही अज्ञान है। जिसका प्रभाव ज्ञानकी ओर जाता है वह राग को निःशंक रूपसे जानता है किन्तु उसे ज्ञान स्वभावमें कोई शंका नहीं होती। और जिसका प्रभाव ज्ञानकी ओर नहीं है उसे रागको जाननेपर भ्रम हो जाता है कि यह राग क्यों ? लेकिन भाई ! तेरी दृष्टि ज्ञानसे हटकर रागपर क्यों जाती है ? जो यह राग मालूम होता है सो तो ज्ञानकी जानने की जो शक्ति विकसित हुई है वही मालूम होती है। इस प्रकार ज्ञान और रागको पृथक् करके अपने ज्ञानपर भार दे, यही मुक्तिका उपाय है ज्ञानपर भार देनेसे ज्ञान सम्पूर्ण विकसित हो जायगा और राग सर्वथा नष्ट हो जायगा-जिससे मुक्ति मिलेगी। भेदज्ञानका ही यह फल है।
रागके समय जिसने यह जाना कि 'जो यह राग मालूम होता है वह मेरी ज्ञान शक्ति है, रागकी शक्ति नहीं है और इसप्रकार जिसने भिन्न रूपमें प्रतीति करली है उसके मात्र ज्ञातृत्व रहजाता है और ज्ञातृत्वके बलसे समस्त विकारका कत्त्व भाव उड़ जाता है। (९) ज्ञानकी शक्ति चारित्र का साधन
___यदि कोई ऐसा माने कि महाव्रतके शुभ विकल्पसे चारित्र दशा प्रगट होती है तो वह मिथ्यादृष्टि है। क्योंकि ब्रतका विकल्प तो राग है इसलिये वह बन्धका लक्षण है और चारित्र आत्मा है। जो शुभराग को चारित्र का साधन मानता है वह बन्धको और आत्माको एक मानता है तथा उन्हें पृथक् नही समझता; इसलिये वह मिथ्यादृष्टि है, वह राग रहित