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* सम्यग्दर्शन ___ वन्ध रहित अपने शुद्ध स्वरूपको जाने विना बन्धभावको भी यथार्थतया नही जाना जा सकता । पुण्य-पाप दोनों विकार हैं, वे आत्मा नहीं है, चैतन्य स्वभाव ही आत्मा है। जितने दया-दान-भक्ति इत्यादि के शुभभाव हैं उनका आत्माके साथ कोई मेल नहीं खाता किन्तु बन्धके साथ उनका मेल है।
प्रश्न-जव कि पुण्य आत्मा नहीं है तव फिर पर जीव की दया क्यों करना चाहिये ?
उत्तर—अरे भाई ! कोई आत्मा पर जीवों की दया का पालन कर ही नहीं सकता, क्योंकि अन्य जीव को मारने अथवा बचाने की क्रिया आत्मा की कदापि नहीं है, आत्मा तो मात्र उसके प्रति दयाके शुभभाव कर सकता है। ऐसी स्थितिमें यदि शुभ दया भावको अपना स्वरूप माने तो उसे मिथ्यात्वका महापाप लगेगा। शुभ अथवा अशुभ कोई भी भाव आत्म कल्याणमें किंचित् मात्र सहायक नही हैं क्योंकि वे भाव आत्मा के स्वभावसे विपरीत लक्षणवाले हैं। पुण्य पाप भाव अनात्मा है, जहाँ तक चारित्रमें कमजोर है वहाँ तक ज्ञानीको भी वे भाव आते हैं। . (८) ज्ञान का कार्य
साधक दशामें राग होता है तथापि ज्ञान उससे भिन्न है। रागके समय रागको रागके रूपमें जाननेवाला ज्ञान रागसे भिन्न रहता है। यदि ज्ञान और राग एकमेक हो जायें तो रागको रागके रूपमें नहीं जानाजा सकता। राराको जानने वाला ज्ञान आत्माके साथ एकता करता है और रागके साथ अनेकता ( भिन्नता) करता है। ज्ञानकी ऐसी शक्ति है कि वह रागको भी जानता है । ज्ञानमें जो राग ज्ञात होता है वह तो ज्ञान की स्वपर प्रकाशक शक्तिका विकास है, परन्तु अंज्ञानी को अपने स्वतत्त्व की श्रद्धा नहीं होती इसलिये वह रागको और ज्ञानको पृथक् नहीं कर सकता और इसीलिये वह रागको अपना ही स्वरूप मानता है, यही स्वतत्त्वका बिरोध है। भेद ज्ञानके होते ही ज्ञान और राग भिन्न मालूम होते है इसलिये भेद