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भगवान श्री फुन्दकुन्द-महान जैन शाखमाला (६) भेद विज्ञानकी महिमा
___ यहाँ तो भेदविज्ञानकी ही प्रमुखता है भेदज्ञानकी अपार महिमा है । पहले एक सौ इकतीसवें श्लोकमें भेदजानकी महिमाको बताते हुए कहा है कि:
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन ।
अस्यैवाभावतो पद्धा वद्धा ये किल केचन ॥ १३१ ॥ __ अर्थः--जितने भी सिद्ध हुए हैं वे सब भेदविज्ञानसे ही हुए हैं, और जो वद्ध हुए हैं वे सब उसी-भेदविज्ञानके ही अभावसे ही हुए हैं।
भावार्थ:-अनादिकालसे लेकर जब तक जीवके भेदविज्ञान नहीं होता वहाँ तक वह बन्धता ही रहता है-संसारमें परिभ्रमण करता ही रहता है। जिस जीव को भेदविज्ञान हो जाता है वह कर्मों से अवश्य छूट जाता है-मोक्ष को अवश्य प्राप्त करता है। इसलिये कर्मवन्धका-संसार का मूल भेद विज्ञान का अभाव ही है और मोक्ष का प्रथम कारण भेद विज्ञान ही है। विना भेद विज्ञान के कोई सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। (७) आत्मा और वन्धभाव में भेद
आत्माके समस्त गुणोंमें और समस्त क्रमवर्ती पर्यायों में चेतना व्याप्त होकर रहती है इसलिये चेतना ही आत्मा है। क्रमवर्ती पर्याय के कहनेसे उसमें रागादि विकार नहीं लेना चाहिये किन्तु शुद्ध पर्याय ही लेनी चाहिये, क्योंकि राग समस्त पर्यायोंमें व्याप्त होकर प्रवृत्त नहीं होता। बिना रागकी पर्याय तो हो सकती है, परन्तु बिना चेतना की कोई पर्याय नहीं हो सकती, चेतना प्रत्येक पर्यायमें अवश्य होती है। इसलिये जो राग है सो आत्मा नहीं है किन्तु चेतना ही आत्मा है बन्ध भावोंकी ओर न जाकर अतर स्वभाव की ओर उन्मुख होकर जो चैतन्यके साथ एकमेक हो जाती हैं वे निर्मल पर्यायें ही आत्मा हैं। इसप्रकार निर्मल पर्यायों को के साथ अभेद करके उसी को आत्मा कहा है और विकार भावको बन्ध भाव कहकर उसे आत्मासे अलग कर दिया है। यह भेद विज्ञान है।