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— सम्यग्दर्शन
आत्माकी ज्ञान शक्ति को नहीं पहिचानता जब व्रत का शुभ विकल्प उठा तब उस समय आत्मा के ज्ञान की पर्याय की शक्ति ही ऐसी विकसित हुई है कि वह ज्ञान आत्माके स्वभावको भी जानता है और विकल्प को भी जानता है । उस पर्याय में विकल्पका ही ज्ञान होता है दूसरा कदापि नहीं होता, परन्तु वहां जो विकल्प है वह चारित्रका साधन नहीं किन्तु जो ज्ञान शक्ति विकसित हुई है वह ज्ञान ही स्वयं चारित्रका साधन है । तेरी ज्ञायक पर्याय ही तेरी शुद्धताका साधन है और जो व्रतका राग है सो वह तेरी ज्ञायक पर्याय का उस समय का ज्ञेय है । यह बात नहीं है कि महाव्रत का विकल्प उठा है इसलिये चारित्र प्रगट हुआ है, परन्तु ज्ञान उस वृत्ति को और स्वभावको दोनों को भिन्न जानकर स्वभावकी ओर उन्मुख हुआ है इसीलिये चारित्र प्रगट हुआ है । वृत्ति तो वन्धभाव है और मै ज्ञायक हूं, इसप्रकार ज्ञायक भावकी दृढ़ताके वलसे वृत्तिको तोड़कर ज्ञान अपने स्वभाव में लीन होता है और क्षपक श्रेणीको मांडकर केवलज्ञान और मोक्षको प्राप्त करता है । तात्पर्य यह है कि प्रज्ञारूपी छैनी ही मोक्षका साधन है ।
(१०) ज्ञान विकार का नाशक है ।
वह
ज्ञानमें जो विकार मालूम होता है वह तो ज्ञानकी पर्यायकी शक्ति ही ऐसी विकसित हुई है-यों कहकर ज्ञान और विकारके वीच भेद किया है; उसकी जगह कोई यह मान बैठे कि- "भले विकार हुआ करे, आखिर है तो ज्ञानका ज्ञेय ही न ?" तो समझना चाहिये कि वह ज्ञानके स्वरूपको ही नहीं जानता । भाई, जिसके पुरुपार्थका प्रवाह ज्ञानके प्रति वह रहा है उसके पुरुषार्थका प्रवाह विकारकी ओरसे रुक जाता है और उसके प्रतिक्षण विकारका नाश होता रहता है। सावक दशामें जो २ विकार भाव उत्पन्न होते हैं वे ज्ञानमे ज्ञात होकर छूट जाते हैं उनका अस्तित्व नहीं रहता । इसप्रकार क्रमबद्ध प्रत्येक पर्याय ज्ञान+ गुलाब स्वमान की ओर होता जाता है और विकारसे छूटता जाना है । "बिस्तर भले ही" यह भावना मिथ्यादृष्टि की ही है। ज्ञानी तो जानता है कि कोई विर